Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 98
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-८८६-८८९ सिद्धान्त में जिस प्रकार उत्सर्ग बताए हैं उसे अच्छी तरह से समझना । हे गौतम ! तप करने के बावजूद भी उसे भोगावली कर्म का महा उदय था । तो भी उसे विषय की उदीरणा पैदा हुई तब आँठ गुना घोर महातप किया तो भी उसके विषय का उदय नहीं रुकता । तब भी विष भक्षण किया । पर्वत पर से भृगुपात किया । अनशन करने की अभिलाषा की । वैसा करते हुए चारण मुनि ने रोका । उसके बाद गुरु को रजोहरण अर्पण करके अनजान देश में चला गया । हे गौतम ! श्रुत में बताए यह उपाय जानना। सूत्र-८९०-८९४ जैसे कि जब तक गुरु को रजोहरण और प्रव्रज्या वापस अर्पण न की जाए तब तक चारित्र के खिलाफ किसी भी अपकार्य का आचरण न करना चाहिए। जिनेश्वर के उपदेशीत यह वेश-रजोहरण गुरु को छोड़कर दूसरे स्थान पर न छोड़ना चाहिए । अंजलिपूर्वक गुरु को रजोहरण अर्पण करना चाहिए । यदि गुरु महाराज समर्थ हो और उसे समझा सके तो समझाकर सही मार्ग पर लाए । यदि कोई दूसरा उसे समझा सके तो उसे समझाने के लिए कहना । गुरु ने भी शायद दूसरों की वाणी से उपशान्त होता हो तो एतराज न करना चाहिए । जो भव्य है, जिसने परामर्श जाना है । जगत के हालात को पहचानता है, हे गौतम ! जो इस पद की नफरत करता है वो जैसे 'आसडने' माया, प्रपंच और दंभ से चार गति में भ्रमण किया वैसे वो भी चार गति में भ्रमण करेगा। सूत्र-८९५-९०० हे भगवंत ! माया प्रपंच करने के स्वभाववाला आसड़ कौन था ? वो हम नहीं जानते । फिर किस निमित्त से काफी दःख से परेशान यहाँ भटका? हे गौतम ! दसरे किसी अंतिम कांचन समान कान्तिवाले तीर्थंकर के तीर्थ में भूतीक्ष नाम के आचार्य का आसड़ नाम का शिष्य था । महाव्रत अंगीकार करके उसने सूत्र और अर्थ का अध्ययन किया । तब विषय का दर्द पैदा नहीं हआ था लेकिन उत्सुकता से चिन्तवन करने लगा कि सिद्धांत में ऐसी विधि बताई है । तो उस प्रकार गुरु वर्ग की काफी रंजन करके आँठ गुना तप करना, भृगुपात करना, अनशन करना। झहर खाना आदि सब मैं करूँगा, जिससे मुझे भी देवता निवारण करेंगे और कहेंगे कि तूं लम्बी आयुवाला है, तुम्हारी मौत नहीं होगी । तुम्हारी इच्छा अनुसार भोग भुगत । वेश रजोहरण गुरु महाराज को वापस अर्पण करके दूसरे किसी अनजान देश में चला जा । भोगफल भुगतकर पीछे घोर वीर तप सेवना । सूत्र- ९०१-९०५ या वाकई मैं मूर्ख हूँ। मेरे अपने माया शल्य से मुझे चोट पहुंची है । श्रमण को अपने मन में इस तरह की धारणा करनी युक्त न मानी जाए । पीछे से भी उसका प्रायश्चित्त आलोवकर आत्मा को हलका बनाऊंगा और महाव्रत धारण करूँगा । या आलोचकर वापस मायावी कहलाऊंगा । तो दश साल तक मासखमण और पारणे आयंबिल, बीस साल तक दो महिने के लगातार उपवास और पारणे आयंबिल, पच्चीस साल तक चांद्रायण तप । पूरे आँठ साल तक छठू, अठूम और चार-चार उपवास, इस तरह का महाघोर प्रायश्चित्त मेरी अपनी मरजी से यहाँ करूँगा। यह प्रायश्चित्त यहाँ गुरु महाराज के चरणकमल में रहकर करूँगा। सूत्र - ९०६-९०९ मेरे लिए यह प्रायश्चित्त अधिक नहीं है क्या ? या तीर्थंकर भगवंत ने यह विधि की कल्पना क्यों की होगी ? मैं उसका अभ्यास करता हूँ। और जिसने मुझे प्रायश्चित्त में जुड़ा, वो सर्व हकीकत सर्वज्ञ भगवंत जाने, मैं तो प्रायश्चित्त का सेवन करूँगा । जो कुछ भी यहाँ दृष्ट चिन्तवन किया वो मेरा पाप मिथ्या हो । इस प्रकार कष्टहारी घोर प्रायश्चित्त अपनी मति से किया और वैसा करके शल्यवाला वो मरके वाणव्यंतर देव बना । हे गौतम ! यदि उसने गुरु महाराज के समक्ष विधिवत् आलोचना की होती तो और उतने प्रायश्चित्त का सेवन किया होता तो नवग्रैवेयक के उपर के हिस्से के विमान में पैदा होता। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 98

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