Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 99
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक नोंध- हमारे आगम सुताणि-३९ महानिसीह मे गलती से ९१० की बजाय १००० अनुक्रम लिखा गया है। सूत्र-१०००-१००३ वाणमंतर देव में से च्यवकर हे गौतम ! वो आसड़ तिर्यंच गति में राजा के घर गधे के रूप में आएगा । वहाँ हमेशा घोड़े के साथ संघटन करने के दोष से उसके वृषण में व्याधि पैदा हुआ और उसमें कृमि पैदा हुए । वृषण हिस्से में कृमि से खाए जानेवाले हे गौतम ! आहार न मिलने से दर्द से पीड़ित था और पृथ्वी चाटता था । इतने में दूर से साधु वापस मुड़ते थे । वैसा देखकर खुद को जाति स्मरण ज्ञान हुआ । पूर्वभव का स्मरण करके अपने आत्मा की निंदा और गर्दा करने लगा । और फिर अनशन अंगीकार किया। सूत्र-१००४-१०१० कौए-कुत्तों से खाए जानेवाला हे गौतम ! शुद्ध भाव से अरिहंत का स्मरण करते-करते शरीर का त्याग करके काल पाकर उस देवेन्द्र का महाघोष नाम का सामानिक देव हुआ । वहाँ दिव्य ऋद्धि अच्छी तरह से भुगतकर च्यवा । वहाँ से वो वेश्या के रूप में पैदा हुआ । जो छल किया था उसे प्रकट नहीं किया था इसलिए वहाँ से मरके कईं अधम, तुच्छ, अन्त-प्रान्तकुल में भटका कालक्रम से करके मथुरा नगरी में शिव-इन्द्र का दिव्यजन' नाम का पुत्र होकर प्रतिबोध पाकर श्रमणपन अंगीकार करके निर्वाण पाया । हे गौतम ! कपट से भरे आसड़ का दृष्टांत तुम्हें बताया । जो किसी भी सर्वज्ञ भगवंत ने बताए वचन को मन से विराधना करते हैं, विषय के दर्द से नहीं, लेकिन उत्सुकता से भी विषय की अभिलाषा करते हैं । और फिर, अपने आप गुरु को निवेदन किए बिना प्रायश्चित्त सेवन करते हैं । वो भव की परम्परा में भ्रमण करनेवाला होता है। इस प्रकार जाननेवाले को एक भी सिद्धांत आलापक की उन्मार्ग की प्ररूपणा नहि करनी चाहिए। सूत्र-१०११ यदि किसी सर्व श्रुतज्ञान या उस का अर्थ या एक वचन को पहचान कर मार्ग के अनुसार उस का कथन करे तो वो पाप नहीं बाँधता । इतना मानकर मन से भी उन्मार्ग से प्रवृत्ति न करनी । इस प्रकार भगवंत के मुख से सुना हुआ मैं तुम्हें कहता हूँ। सूत्र-१०१२-१०१५ हे भगवंत ! अकार्य करके अगर अतिचार सेवन करके यदि किसी प्रायश्चित्त का सेवन करे उससे अच्छा जो अकार्य न करे वो ज्यादा सुन्दर है ? हे गौतम ! अकार्य सेवन करके फिर मैं प्रायश्चित्त सेवन करके शुद्धि कर । उस प्रकार मन से भी वो वचन धारण करके रखना उचित नहीं है । जो कोई ऐसे वचन सुनकर उसकी श्रद्धा करता है, या उसके अनुसार व्यवहार करता है वो सर्व शिलभ्रष्ट का सार्थवाह समझना । हे गौतम ! शायद उस प्राण संदेह के वजह समान ऐसा कठिन भी प्रायश्चित्त करे तो भी जैसे तीतली दीए की शिखा में प्रवेश करती है, तो उसकी मौत होती है । वैसे आज्ञाभंग कर के कईं मरणवाला संसार उपार्जन होता है। सूत्र - १०१६-१०१९ हे भगवंत ! जो कोई भी मानव अपने में जो कोई बल, वीर्य पुरुषकार पराक्रम हो उसे छिपाकर तप सेवन करे तो उसका क्या प्रायश्चित्त आए ? हे गौतम ! अशठ भाववाले उसे यह प्रायश्चित्त हो सकता है । क्योंकि वैरी का सामर्थ्य जानकर अपनी ताकत होने के बावजूद भी उसने उसकी अपेक्षा की है जो अपना बल वीर्य, सत्त्व पुरुषकार छिपाता है, वो शठ शीलवाला नराधम दुगुना प्रायश्चित्ती बनता है । नीच गोत्र, नारकी में घोर उत्कृष्ट हालातवाला दुःख भुगतते, तिर्यंच गति में जाए और उसके बाद चार गति में वो भ्रमण करनेवाला होता है । सूत्र - १०२०-१०२४ हे भगवंत ! बड़ा पापकर्म वेदकर खपाया जा सकता है। क्योंकि कर्म भुगते बिना उसका छुटकारा नहीं किया जा सकता । तो वहाँ प्रायश्चित्त करने से क्या फायदा ? हे गौतम ! कईं क्रोड़ साल से इकट्ठे किए गए पापकर्म मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 99

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