Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक के सारभूत उत्तम तत्त्व को यथास्थित अविपरीत निःशंक कहते हुए वो मिथ्यादृष्टि साधुवेशधारी पाखंडी के बीच यथार्थ प्ररूपणा से तीर्थंकर नामगोत्र उपार्जन किया । एक भव बाकी रहे वैसा संसार समुद्र सूखा दिया।
वहाँ जिसका नाम नहीं लिया जाता वैसा दिष्ट नाम का संघ इकट्ठा करनेवाला था । उसने एवं कईं पापमति वाले वेशधारी आपस में इकट्ठे होकर हे गौतम ! उस महातपस्वी महानुभाव का जो कुवलयप्रभ नाम था उसके बजाय नाम का विलाप किया । इतना ही नहीं, लेकिन साथ मिलकर ताली देकर 'सावधाचार्य' ऐसे दूसरे नाम का स्थापन किया । उसी नाम से अब उन्हें बुलाने लगे । वो ही नाम प्रसिद्ध हुआ । हे गौतम ! वैसे अप्रशस्त शब्द से बुलाने के बावजूद भी उसी तरह नाम बोलने के बाद भी वो सहज भी कोपित नहीं हुए थे। सूत्र - ८४०
अब किसी समय दुराचारी अच्छे धर्म से पराङ्मुख होनेवाले साधुधर्म और श्रावक धर्म दोनों से भ्रष्ट होनेवाला केवल भेष धारण करनेवाले हम प्रव्रज्या अंगीकार की है-ऐसा प्रलाप करनेवाले ऐसे उनको कुछ समय गुजरने के बाद भी वो आपस में आगम सम्बन्धी सोचने लगे कि-श्रावक की गैरमोजुदगी में संयत ऐसे साधु ही देवकुल मठ उपाश्रय की देखभाल करे और जिनमंदिर खंडित हुए हो, गिर गए हो तो उसका जीर्णोद्धार करवाए, मरम्मत करवाए, यह काम करते करते यदि कोई आरम्भ, समारम्भ हो उसमें साधु हो तो भी उन्हें दोष नहीं लगता। और फिर कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि संयम ही मोक्ष दिलवाता है । कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि-जिन प्रासाद जिन चैत्य की पूजा-सत्कार-बलि विधान आदि करने से तीर्थ से शासन की उन्नति-प्रभावना होती है और वो ही मोक्ष गमन का उपाय है । इस प्रकार यथार्थ परमार्थ न समझनेवाले पापकर्मी उन्हें ठीक लगे वो मुख से प्रलाप करते थे
उस समय दो पक्ष में विवाद पैदा हुआ । उनमें किसी वैसे आगम के माहितगार कुशल पुरुष नहीं है कि जो इस विषय में युक्त या अयुक्त क्या है उसके बारे में सोच सके या प्रमाणपूर्वक विवाद को समा सके । और उसमें से एक ऐसा कहे कि इस विषय के जानकार कुछ आचार्य कुछ स्थान पर रहे हैं । दूसरा फिर दूसरे का नाम बताए, ऐसे विवाद चलते-चलते एक ने कहा कि यहाँ ज्यादा प्रलाप करने से क्या ? हम सबको इस विषय में सावधाचार्य जो निर्णय दे वो प्रमाणभूत । दूसरे सामने के पक्षवाले ने भी उस बात को अपनाया और कहा कि उन्हें जल्द बुलाओ।
हे गौतम ! उन्हें बुलाए यानि दूर देश से वो सतत अप्रतिबद्ध विहार करते करते सात महिने में आ पहुँचे । बीच में एक आर्या को उसके दर्शन हुए । कष्टकारी उग्र तप और चारित्र से शोषित शरीरवाले, जिसके शरीर में केवल चमड़ी और हड्डी बाकी रहे हैं, तप के तेज से अति दीपायमान ऐसे उस सावधाचार्य को देखकर काफी विस्मय पाइ हुई उस पल में वितर्क करने लगी कि-क्या यह महानुभाव वो अरिहंत है कि यह मूर्तिमान धर्म है ? ज्यादा क्या सोचे? देवेन्द्र को भी वंदनीय है । उसके चरण युगल मुजे वंदन करने के लायक है... ऐसा चिन्तवन करके भक्तिपूर्ण हृदयवाली उनकी और प्रदक्षिणा देकर मस्तक से पाँव का संघट्टा हो जाए वैसे अचानक सहसा वो सावधाचार्य को प्रणाम करते और पाँव का संघटा होते देखा । किसी समय वो आचार्य उनको जिस तरह जगत के गुरु तीर्थंकर भगवंत ने उपदेश दिया है । उस प्रकार गुरु के उपदेश के अनुसार क्रमानुसार यथास्थित सूत्र और अर्थ की प्ररूपणा करते हैं, उस प्रकार वो उसकी सद्दहणा करते हैं।
एक दिन हे गौतम ! उस प्रकार कहा कि ग्यारह अंग; चौदह पूर्व, बारह अंग रूप श्रुतज्ञान का सार, रहस्य हो, नवनीत हो तो समग्र पाप का परिहार और आँठ कर्म को समझानेवाले महानिशीथ श्रुतस्कंध का पाँचवा अध्ययन है । हे गौतम ! इस अध्ययन में जितने में विवेचन करते थे उतने में यह गाथा आई। सूत्र-८४१
"जिस गच्छ में वैसी कारण पैदा हो और वस्त्र के आंतरा सहित हस्त से स्त्री के हाथ का स्पर्श करने में और अरिहंत भी खुद कर स्पर्श करे तो उस गच्छ को मुलगुण रहित समझना ।"
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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