Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक शिथिल होकर रहे थे । पिछे से यह लोक और परलोक के नुकसान की फीक्र का त्याग करके, लम्बे अरसे का संसार अंगीकार करके वो ही मठ और देवकुल में अति परिग्रह, बुद्धि, मूर्छा, ममत्वकरण, अहंकार आदि करके, संयम मार्ग में पीछे पड़े पराभवित होने के बाद खुद तरह-तरह की पुष्प की माला आदि से (गृहस्थ की तरह) देवार्चन करने के लिए उद्यमशील होने लगे। और फिर जिस शास्त्र के सार समान श्रेष्ठ ऐसा सर्वज्ञ का वचन है, उसे काफी दूर से त्याग किया । उसी के अनुसार सर्व जीव, सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व सत्त्व का वध न करना, उनको दर्द न देना । उन्हें परिताप का देना, उन्हें ग्रहण न करना यानि पकड़कर बन्द न करना । उनकी विराधना न करनी, किलामणा न करना, उनका उपद्रव न करना, सूक्ष्म बादर, त्रस या स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, जो कोई बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चऊरिन्द्रिय जीव हो, पंचेन्द्रिय जीव हो वो सभी त्रिविध-त्रिविध से मन, वचन, काया से मारना नहीं, मरवाना नहीं, मारनेवाले को अच्छा मत समझना, उनकी अनुमोदना न करना, ऐसी खुद न अपनाई हुई महाव्रत की प्रतिज्ञा भी भूल जाए । और फिर हे गौतम ! मैथुन एकान्त में या निश्चय से दृढ़ता से और जल एवं अग्नि का समारम्भ सर्वथा सर्व तरह से मुनि खुद वर्जन करे । इस तरह का धर्म ध्रुव, शाश्वत, नित्य है ऐसा लोगों का खेद दुःख को जाननेवाले सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंत ने प्ररूपण किया है । सूत्र-८३८
हे भगवंत ! यदि कोई साध या साध्वी या निर्ग्रन्थ अणगार द्रव्यस्तव करे उसे क्या कहे ? हे गौतम ! जो कोई साध या साध्वी या निर्ग्रन्थ अणगार द्रव्यस्तव करे वो असंयत-अयति देवद्रव्य का भोगिक या देव का पूजारी उन्मार्ग की प्रतिष्ठा करनेवाला, शील को दूर से त्याग करनेवाला, कुशील, स्वच्छंदाचारी ऐसे शब्द से बुलाते हैं। सूत्र-८३९
उसी तरह हे गौतम ! इस तरह अनाचारमे प्रवर्तनेवाले कईं आचार्य एवं गच्छनायक के भीतर एक मरकत रत्न समान कान्तिवाले कुवलयप्रभ नाम के महा तपस्वी अणगार थे । उन्हें काफी महान जीवादिक चीज विषयक सूत्र और अर्थ सम्बन्धी विस्तारवाला ज्ञान था । इस संसार समुद्र में उन योनि में भटकने के भयवाले थे। उस समय उस तरह का असंयम प्रवर्तने के बावजूद, अनाचार चलता होने के बाद, कुछ साधर्मिक ससंयम और अनाचार का सेवन करते रहने के बाद भी वो कुवलयप्रभ अनगार तीर्थंकर की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते थे।
अब किसी समय जिसने बल वीर्य पुरुषकार और पराक्रम नहीं छिपाया ऐसे उस सभी शिष्य के परिवार सहित सर्वज्ञ प्ररूपित, आगम सूत्र उसका अर्थ और उभय के अनुसार, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, ममत्वभाव, अहंकार रहित, सभी चीजों में द्रव्य क्षेत्र-काल और भाव से निर्ममत्व हुए, ज्यादा उनके कितने गुण बताए इस तरह खदान, नगर, खेड़, कबड़, मंडप, द्रोणमुख आदि स्थान विशेष में कईं भव्यात्माओं को संसार समान कैदखाने से छुड़ानेवाली ऐसी सुंदर धर्मकथा का उपदेश देते-देते विचरण करते थे । उसी प्रकार उनके दिन बीतते थे।
अब किसी दिन विहार करते-करते वो महानुभाव वहाँ आए कि जहाँ पहले हमेशा एक स्थान पर वास करनेवाले रहते थे। यह महा तपस्वी है ऐसा मानकर वंदन कर्म आसन दिया इत्यादिक समुचित विनय करके उनका सन्मान किया उस प्रकार वो सुख से वहाँ बैठे । बैठकर धर्मकथादिक के विनोद करवाते हुए वहाँ से जाने के लिए कोशीश करने लगे । तब वो महानुभाग कुवलयप्रभ आचार्य को उन्होंने दुरान्त प्रान्त अधम लक्षणवाले वेश से आजीविका करनेवाले, भ्रष्टाचार सेवन करनेवाले, उन्मार्ग प्रवर्तनेवाले आभिग्राहक मिथ्यादृष्टि ने कहा कि-हे भगवंत ! यदि आप यहाँ एक वर्षाकाल का चातुर्मास रहने का तय करो तो तुम्हारी आज्ञा से यहाँ उतनते जिन चैत्यालय तय करवाने के लिए हम पर कृपा करके आप यहीं चातुर्मास करो।
हे गौतम ! उस समय वो महानुभाव कुवलयप्रभ ने कहा कि-अरे प्रिय वचन बोलनेवाले ! जो कि जिनालय है, फिर भी यह पाप समान है । मैं कभी भी केवल वचन से भी उसका अनुमोदन नहीं करूँगा । इस प्रकार शास्त्र
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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