Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

Previous | Next

Page 92
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- ८४२ तब अपनी शंकावाला उन्होंने सोचा कि यदि यहाँ मैं यथार्थ प्ररूपणा करूँगा तो उस समय वंदना करती उस आर्या ने अपने मस्तक से मेरे चरणाग्र का स्पर्श किया था, वो सब इस चैत्यवासी ने मुझे देखा था । तो जिस तरह मेरा सावधाचार्य नाम बना है, उस प्रकार दूसरा भी वैसा कुछ अवहेलना करनेवाला नाम रख देंगे जिससे सर्व लोक में मै अपूज्य बनूँगा । तो अब मैं सूत्र और अर्थ अन्यथा प्रखण करूँ । लेकिन ऐसा करने में महा आशातना होगी तो अब मुझे क्या करना? तो इस गाथा की प्ररूपणा करे कि न करे? अगर अलग-अलग रूप से प्ररूपणा करे? या अरेरे यह युक्त नहीं है। दोनों तरह से काफी गर्हणीय है । आत्महित में रहे, विरुद्ध प्ररूपणा करना वो उचित नहीं है । क्योंकि शास्त्र का यह अभिप्राय है कि जो भिक्षु बारह अंग रूप श्रुतवचन को बार-बार चूक जाए, स्खलना पाने में प्रमाद करे । शंकादिक के भय से एक भी पद-अक्षर, धुंद, मात्रा को अन्यथा रूप से खिलाफ प्ररूपणा करे, संदेहवाले सूत्र और अर्थ की व्याख्या करे । अविधि से अनुचित को वाचना दे, वो भिक्षु अनन्त संसारी होता है । तो अब यहाँ मैं क्या करूँ ? जो होना है वो हो । गुरु के उपदेश अनुसार यथार्थ सूत्रार्थ को बताऊं ऐसा सोचकर हे गौतम ! समग्र अवयव विशुद्ध ऐसी उस गाथा का यथार्थ व्याख्यान किया । इस अवसर पर हे गौतम ! दुरन्त प्रान्त अधम लक्षणवाले उस वेशधारी ने सावधाचार्य को सवाल किया कि-यदि ऐसा है तो तुम भी मुल गुण रहित हो । क्योंकि तुम वो दिन याद करे तो वो आर्य उन्हें वंदन करने की इच्छावाली थी तब वंदन करते करते मस्तक से पाँव का स्पर्श किया। उस समय इस लोक के अपयश से भयभीत अति अभिमान पानेवाले उस सावधाचार्य का नाम रख दिया वैसे अभी कुछ भी वैसा नाम रखेंगे तो सर्व लोक में मैं अपूज्य बनूँगा । तो अब यहाँ मैं क्या समाधान दूँ ? ऐसा सोचते हुए सावधाचार्य को तीर्थंकर का वचन याद आया कि-जो किसी आचार्य का गच्छनायक या गच्छाधिपति श्रुत धारण करनेवाला हो उसने जो कुछ भी सर्वज्ञ अनन्तज्ञानी भगवंत ने पाप और अपवाद स्थानक को प्रतिषेधे हो वो सर्व श्रुत अनुसार जानकर सर्व तरह से आचरण करे, आचरण करनेवाले को अच्छा न माने, उसकी अनुमोदना न करे, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, भय से, हँसी से, गारव से, दर्प से, प्रमाद से बार-बार चूक जाने या स्खलना होने से दिन में या रात को अकेला हो या पर्षदा में हो, सोते हुए या जागते हुए । त्रिविध त्रिविध से मन, वचन या काया से यह सूत्र या अर्थ के एक भी पद के यदि कोई विराधक हो । वो भिक्षु बार-बार निंदनीय, गर्हणीय, खींसा करने के लायक, दुगंछा करने के लायक, सर्वलोक से पराभव-पानेवाला, कईं व्याधि वेदना से व्याप्त शरीरवाला, उत्कृष्ट दशावाले अनन्त संसार सागर में परिभ्रमण करनेवाले होते हैं, उसमें परिभ्रमण करने से एक पल भी कईं शायद भी शान्ति नहीं पा सकता । तो प्रमादाधीन हुआ पापी अधमाधम हीन सत्त्ववाले कायर पुरुष समान मुझे यहीं यह बड़ी आपत्ति पैदा हुई है कि जिससे मैं यहाँ युक्तिवाला किसी समाधान देने के लिए समर्थ नहीं हो सकता । और परलोक में भी अनन्त भव परम्परा में भ्रमणा करते हुए अनन्ती बार के घोर भयानक दुःख भुगतनेवाला बनूँगा । वाकई मैं मंद भाग्यवाला हूँ । इस प्रकार सोचनेवाले ऐसे सावधाचार्य को दुराचारी पापकर्म करनेवाले दुष्ट श्रोता ने अच्छी तरह से पहचान लिया कि, यह झूठा काफी अभिमान करनेवाला है। उसके बाद क्षोभ पाए हुए मनवाले उसे जानकर उस दुष्ट श्रोताओं ने कहा कि जब तक इस संशय का छेदन नहीं होगा तब तक व्याख्यान मत उठाना, इसलिए इसका समाधान दुराग्रह को दूर करने के लिए समर्थ प्रौढ़युक्ति सहित दो । तब उसने सोचा कि अब उसका समाधान पाए बिना वो यहाँ से नहीं जाएंगे। तो अब मैं उसका समाधान किस तरह दूँ? ऐसा सोचते हुए फिर से हे गौतम ! उस दुराचारी ने उसे कहा कि तुम ऐसे चिन्ता सागर में क्यों डूब गए हो ? जल्द ही इस विषय का कुछ समाधान दो । और फिर ऐसा समाधान दो कि जिससे बताई हुई आस्तिकता में तुम्हारी युक्ति एतराज बिना-अव्यक्तचारी हो । उसके बाद लम्बे अरसे तक हृदय में परिताप महसूस करके सावधाचार्य ने मन से चिन्तवन किया और कहा कि इस कारण से जगद्गुरु ने कहा है कि - मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 92

Loading...

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151