Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 81
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक श्रुतस्कंध में उस समय बारह अंग रूप श्रुतस्कंध की प्रतिष्ठा होगी । हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सरल लगे उस तरीके से जैसे भी गच्छ की व्यवस्था की मर्यादा का उल्लंघन मत करना । सूत्र - ८१५ हे भगवंत ! अति विशुद्ध परिणामवाले गणनायक की भी किसी वैसे दुःशील शिष्य स्वच्छंदता से, गारव कारण से या जातिमद आदि आज्ञा न माने या उल्लंघन करे तो वो आराधक होता है क्या ? शत्रु और मित्र प्रति समभाववाले गुरु के गुण में वर्तते हए और हमेशा सूत्रानुसार विशुद्धाशय से विचरते हो वैसे गणी की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाले चार सौ निन्नानवे साधु जिस तरह अनाराधक हुए वैसे अनाराधक होते हैं । सूत्र-८१६ हे भगवंत ! एक रहित ऐसे ५०० साधु जिन्होंने वैसे गुणयुक्त महानुभाव गुरु महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करके आराधक न हए, वे कौन थे? हे गौतम ! यह ऋषभदेव परमात्मा की चोवीसी के पहले हई तेईस चौवीसी और उस चौवीसी के चौवीसवे तीर्थंकर निर्वाण पाने के बाद कुछ काल गुण से पैदा हुए कर्म समान पर्वत का चरा करनेवाला, महायशवाले, महासत्त्ववाले महानभाव सबह में नाम ग्रहण करने लायक "वईर'' नाम के गच्छाधिपति बने, साध्वी रहित उनका पाँच सौ शिष्य के परिवारवाला गच्छ था । साध्वी के साथ गिना जाए तो दो हजार की संख्या थी। हे गौतम ! वो साध्वी अति परलोक भीरु थी । अति निर्मल अंतःकरणवाली, क्षमा धारण करनेवाली, विनयवती, इन्द्रिय का दमन करनेवाली, ममत्व रहित, अति अभ्यास करनेवाले, अपने शरीर से भी ज्यादा छ काय के जीव पर वात्सल्य करनेवाली, भगवंत ने शास्त्र में बताने के अनुसार अति घोर वीर तप और चरण का सेवन करके शोषित शरीरवाली जिस प्रकार तीर्थंकर भगवंत ने प्ररूपेल है उसी प्रकार दीन मन से, माया, मद, अहंकार, ममत्व, रति, हँसी, क्रीडा, कंदर्प, नाथवादरहित, स्वामीभाव आदि दोष से मुक्त साध्वी आचार्य के पास श्रामण्य का अनुपालन करती थी। हे गौतम ! वो साधु थे वैसे मनोहर न थे, हे गौतम ! किसी समय वो साधु आचार्य को कहने लगे कि हे भगवंत ! यदि आप आज्ञा दो तो हम तीर्थयात्रा करके चन्द्रप्रभुस्वामी के धर्मचक्र को वंदन करके वापस आए। तब हे गौतम ! मन में दिनता लाए बिना, उतावले हुए बिना गम्भीर मधुर वाणी से उन आचार्य ने उन्हें प्रत्युत्तर दिया कि-शिष्य को इच्छाकारेण ऐसे सुन्दर शब्द का प्रयोग करके 'सुविहितो की तीर्थयात्रा के लिए जाना न कल्पे' तो जब वापस आएंगे तब मैं तुम्हें यात्रा और चन्द्रप्रभु स्वामी को वंदन करवाऊंगा । दूसरी बात यह कि यात्रा करने में असंयम करने का मन होता है । इस कारण से तीर्थयात्रा का निषेध किया जाता है। तब शिष्य ने पूछा कि तीर्थयात्रा जानेवाले साधु को किस तरह असंयम होता है ? तब फिर 'इच्छाकारेण' - ऐसा दूसरी बार बुलाकर काफी लोगों के बीच व्याकुल होकर आक्रोश से उत्तर देंगे, लेकिन हे गौतम ! उस समय आचार्य ने चिन्तवन किया कि मेरा वचन उल्लंघन करके भी यकीनन वह शिष्य जाएंगे ही । उस कारण से ही मीठे मीठे वचन बोलते हैं । अब किसी दिन मन से बहुत सोचकर उस आचार्य ने कहा कि तुम सहज भी सूत्र अर्थ जानते हो क्या ? यदि जानते हो तो जिस तरह के असंयम तीर्थ यात्रामें होता है, उस तरह के असंयम खद जान सकते हैं । इस विषय में ज्यादा कहने से क्या फायदा ? दूसरा तुमने संसार का स्वरूप, जीवादिक चीज उसका यथायोग्य तत्त्व पहचाना है । अब किसी दिन कई उपाय समजाए । यात्रा जाते रोके तो भी आचार्य को छोड़कर क्रोध समान यम के साथ तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। वो जाते-जाते कहीं आहार गवेषणा का दोष, किसी जगह हरी वनस्पतिकाय का संघट्ट करते, बीज काय चाँपते थे । कोई चींटी आदि विकलेन्द्रिय जीव, त्रसकाय के संघटन, परितापन, उपद्रव से होनेवाले असंयम दोष लगाते थे । बैठे-बैठे (भी) प्रतिक्रमण न करते थे। किसी बड़े पात्र छोटे पात्र उपकरण आदि दोनों काल विधिवत् मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 81

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