Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक क्रमशः पसार होता है । तब आगे के समय पर संख्यातगुण, असंख्यातगुण, अनन्तगुण कर्म की दशा इकट्ठी करता है । यावत् असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी पूरी हो तब तक नारकी और तिर्यंच दोनों गति के लिए उत्कृष्ट कर्म स्थिति उपार्जन करे । इस प्रकार स्त्री विषयक संकल्पादिक योग से करोड़ लाख उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक भुगतना पड़े वैसे नरक तिर्यंच के उचित कर्मदशा उपार्जन करे।
वहाँ से नीकलने के बाद भवान्तर में कैसे हालात सहने पड़ते हैं वो बताते हैं कि स्त्री की ओर दृष्टि या कामराग करने से उस पाप परम्परा से कदरूपता, श्याम देहवाला, तेज, कान्ति रहित, लावण्य और शोभा रहित, नष्ट होनेवाले तेज और सौभाग्यवाला और फिर उसे देखकर दूसरे उद्वेग पाए वैसे शरीरवाला होता है । उसकी स्पर्शइन्द्रिय सीदती है । उस के बाद उस के नेत्र-अंग उपांग देखने के लिए रागवाले और ।
लाल वर्णवाले होते हैं । विजातीय की ओर नेत्र रागवाले होते हैं । जितने में नयनयुगल कामराग के लिए अरुण वर्णवाले मदपूर्ण बनते हैं।
काम के रागांधपन से अति महान भारी दोष और ब्रह्मव्रत भंग, नियमभंग को नहीं गिनते, अति महान घोर पापकर्म के आचरण को, शीलखंडन को नहीं गिनते अति महान सबसे भारी पापकर्म के आचरण, संयम विराधना की परवा नहीं करते । घोर अंधेरे समान नारकी रूप परलोक के भय को नहीं गिनते । आत्मा को भूल जाते हैं, अपने कर्म और गुणस्थानक को नहीं गिनते । देव और असुर सहित समग्र जगत को जिसकी आज्ञा अलंघनीय है उसकी भी परवा नहीं । ८४ लाख योनि में लाख बार परीवर्तन और गर्भ की परम्परा अनन्त बार करनी पड़ेगी । वो बात भी भूल जाते हैं । अर्ध पलक जितना काल भी जिसमें सुख नहीं है । और चारों गति में एकान्त दुःख है । वह जो देखनेलायक है वो नहीं देखते और न देखनेलायक देखते हैं।
सर्वजन समुदाय इकट्ठे हुए हैं । उनके बीच बैठी हुई या खड़ी होनेवाली, भूमि पर लैटी हुई - सोई हुई या चलती हई, सर्व लोग से दिखनेवाली झगमग करते सर्य की किरणों के समह से दश दिशा में तेज राशि फैल गई है तो भी जैसे खुद ऐसा मानती हो कि सर्व दिशा में शून्य अंधेरा ही है। रागान्ध और कामान्ध बनी खुद जैसे ऐसा न मानती हो कि जैसे कोई देखता या जानता नहीं । जब कि वो रागांध हुई अति महान भारी दोषवाले व्रतभंग, शीलखंडन, संयम विराधना, परलोक भय, आज्ञा का भंग, आज्ञा का अतिक्रमण, संसार में अनन्त काल तक भ्रमण करने समान भय नहीं देखती या परवा नहीं करती । न देखनेलायक देखती है । सब लोगों को प्रकट दिखनेवाला सूर्य हाजिर होने के बाद भी सर्व दिशा में जैसे अंधेरा फैला हो ऐसा मानते हैं।
जिसका सौभाग्यातिशय सर्वथा ऊड गया है, मुँह लटकानेवाली, लालीमावाली थी वो फीके-मु िगए, दुर्दर्शनीय, नहीं देखनेलायक, वदनकमलवाली होती है । उस वक्त काफी तड़पती थी । और फिर उसके कमलपुर, नितम्ब, वत्सप्रदेश, जघन, बाहुलतिका, वक्षःस्थल, कंठप्रदेश धीरे-धीरे स्फुरायमान होते हैं । उसके बाद गुप्त और प्रकट अंग विकारवाले बना देते हैं । उसके अंग सर्व उपांग कामदेव के तीर से भेदित होकर जर्जरित होते हैं । पूरे देह पर का रोमांच खड़ा होता है, जितने में मदन के तीर से भेदित होकर शरीर जर्जरित होता है उतने में शरीर में रही धातु कुछ चलायमान होती है । उसके बाद शरीर पुद्गल नितम्ब साँथल बाहुलतिका कामदेव के तीर से पीड़ित होती है । शरीर पर का काबू स्वाधीन नहीं रहता । नितम्ब और शरीर को महा मुसीबत से धारण कर सकते हैं ।
और ऐसा करते हुए अपने शरीर अवस्था की दशा खुद पहचान या समझ नहीं सकती। वैसी अवस्था पाने के बाद बारह समय में शरीर से निश्चेष्ट दशा हो जाती है । साँस प्रतिस्खलित होती है । फिर मंद-मंद साँस ग्रहण करते हैं।
इस प्रकार कही हुई इतनी विचित्र तरह की अवस्था काम की चेष्टा पाती है । और वो जैसे किसी पुरुष या स्त्री को ग्रह का वलगाड चीपका हो । होशियार पिशाच ने शरीर में प्रवेश किया हो तब चाहे कछ इधर-ऊधर का मन चाहे ऐसा बकवास करे उसकी तरह कामपिशाच या ग्रस्त होनेवाली स्त्री भी कामावस्था में चाहे वैसे असंबद्ध वचन बोले, कामसमुद्र के विषमावर्त में भटकती, मोह उत्पन्न करनेवाले काम के वचन से देखते हुए या अनदेखे मनोहर रूपवाले या बगैर रूपवाले, जवान या बुढे पुरुष की खीलती जवानीवाली या महा पराक्रमी हो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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