Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलं उसमें मंगल शब्द में रहे मंगल शब्द का निर्वाणसुख अर्थ होता है । वैसे मोक्ष सुख को साधने में समर्थ ऐसे सम्यग्दर्शनादि स्वरूपवाला, अहिंसा लक्षणवाला धर्म जो मुजे लाकर दे वो मंगल। और मुजे भव से-संसार से पार करे वो मंगल । या बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित ऐसे आठ तरह के मेरे कर्म समूह को जो छाँने, विलय, नष्ट करे वो मंगल।
यह मंगल और दूसरे सर्व मंगल में क्या विशेषता है ? प्रथम आदि में अरिहंत की स्तुति यही मंगल है । यह संक्षेप से अर्थ बताया । अब विस्तार से नीचे मुताबिक अर्थ जान लो । उस काल उस वक्त हे गौतम ! जिसके शब्द का अर्थ आगे बताया गया है ऐसा जो कोई धर्म तीर्थंकर अरिहंत होते हैं, वो परम पूज्य से भी विशेष तरह से पूज्य होते हैं । क्योंकि वो सब यहाँ बताएंगे वैसे लक्षण युक्त होते हैं। __अचिन्त्य, अप्रमेय, निरुपम जिसकी तुलना में दूसरा कोई न आ सके, श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर गुण समूह से अधिष्ठित होने के कारण से तीन लोक के अति महान, मन के आनन्द को उत्पन्न करनेवाले हैं । लम्बे ग्रीष्मकाल के ताप से संतप्त हुए, मयुर गण को जिस तरह प्रथम वर्षा की धारा का समूह शान्ति दे, उसी तरह कईं जन्मान्तर में उपार्जन करके इकट्ठे किए महा-पुण्य स्वरूप तीर्थंकर नामकर्म के उदय से अरिहंत भगवंत उत्तम हितोपदेश देना आदि के द्वारा सज्जड़ राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, दुष्ट-संक्लिष्ट ऐसा परिणाम आदि से बंधे अशुभ घोर पापकर्म से होनेवाले भव्य जीव के संताप को निर्मूल करते हैं।
सबको जानते होने से सर्वज्ञ हैं । कईं जन्म से उपार्जन किए महापुण्य के समूह से जगत में किसी की तुलना में न आए ऐसे अखूट बल, वीर्य, ऐश्वर्य, सत्त्व, पराक्रमयुक्त देहवाले वो होते हैं । उनके मनोहर देदीप्यमान पाँव के अंगूठे के अग्र हिस्से का रूप इतना रूपातिशयवाला होता है कि जिसके आगे सूर्य जैसे दस दिशा में
से (स्फरायमान) प्रकट प्रतापी किरणों के समह से सर्व ग्रह, नक्षत्र और चन्द्र की श्रेणी को तेजहीन बताते हैं, वैसे तीर्थंकर भगवंत के शरीर के तेज से सर्व विद्याधर, देवांगना, देवेन्द्र, असरेन्द्र सहित देव का सौभाग्य, कान्ति, दीप्ति, लावण्य और रूप की समग्र शोभा फिखी-निस्तेज हो जाती है।
स्वाभाविक ऐसे चार, कर्मक्षय होने से ग्यारह और देव के किए उन्नीस ऐसे चौंतीस अतिशय ऐसे श्रेष्ठ निरुपम और असामान्य होते हैं । जिसके दर्शन से भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक, अहमिन्द्र, इन्द्र
अप्सरा, किन्नर, नर विद्याधर, सूर और असूर सहित जगत के जीव को आश्चर्य होता है । अरे ! हम आज तक किसी भी दिन न देखा हुआ आज देखा । एक साथ इकट्ठे हुए । अतुल महान अचिंत्य गुण परम आश्चर्य का समूह एक ही व्यक्ति में आज हमने देखा । ऐसे शुभ परिणाम से उस वक्त अति गहरा सतत उत्पन्न होनेवाले प्रमोदवाले हुए । हर्ष और अनुराग से स्फुरायमान होनेवाले नये परिणाम से आपस में हर्ष के वचन बोलने लगे और विहार कर के भगवंत आगे चले तब अपने आत्मा की निंदा करने लगे । आपस में कहने लगे की वाकई हम नफरत के लायक हैं, अधन्य हैं, पुण्यहीन हैं, भगवंत विहार करके चले गए फिर संक्षोभ पाए हुए हृदयवाले मूर्छित हुए, महा मुसीबत से होश आया । उनके गात्र खींचने से अति शिथिल हो गए । शरीर सिकुड़ना, हाथ-पाँव फैलाना, प्रसन्नता बतानी, आँख में पलकार होना, शरीर की क्रियाएं-बन्ध हो गई, न समझ सके वैसे स्खलनवाले मंद शब्द बोलने लगे, मंद लम्बे हुँकार के साथ लम्बे गर्म निसाँसे छोड़ने लगे । अति बुद्धिशाली पुरुष ही उनके मन का यथार्थ निर्णय कर
सके
जगत के जीव सोचने लगे कि किस तरह के तप के सेवन से ऐसी श्रेष्ठ ऋद्धि पा सकेंगे? उनकी ऋद्धिसमृद्धि की सोच से और दर्शन से आश्चर्य पानेवाले अपने वक्षःस्थल पर हस्ततल स्थापन करके मन को चमत्कार देनेवाले बड़ा आश्चर्य उत्पन्न करते थे। इसलिए हे गौतम ! ऐसे अनन्त गुण समूह से युक्त शरीरवाले अच्छी तरह से सम्मानपूर्वक ग्रहण किए गए नामवाले धर्मतीर्थ को प्रवर्तानेवाले अरिहंत भगवंत के गुण-समूह समान रत्ननिधान का बयान इन्द्र महाराजा, अन्य किसी चार ज्ञानवाले या महा अतिशयवाले छद्मस्थ जीव भी रात दिन हर एक पल हजारों जबान से करोड़ों साल तक करे तो भी स्वयंभूरमण समुद्र समान अरिहंत के गुण को बयान नहीं कर सकते
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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