Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, DeepratnasagarPage 57
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक स्वाद करना । न देखे, अनसूने, आलोक, परलोक, उभयलोक, विरुद्ध दोषवाले, मकार-जकार मम्मो चच्चो ऐसे अपशब्द उच्चारना । अपयश मिले ऐसे झूठे आरोप लगाना, अछत्ता कलंक चढ़ाना, शास्त्र जाने बिना धर्मदेशना करने की प्रवृत्ति करना । उसे जिह्वाकुशील मानना । हे भगवंत ! भाषा बोलने से भी क्या कुशीलपन हो जाता है ? हे गौतम ! हा, ऐसा होता है । हे भगवंत ! तो क्या धर्मदेशना न करे ? हे गौतम ! सावध-निरवद्य वचन के बीच जो फर्क नहीं जानता, उसे बोलने का भी अधिकार नहीं, तो फिर धर्मदेशना करने का तो अवकाश ही कहाँ है ? सूत्र-६२५ और शरीर कुशील दो तरह के जानना, कुशील चेष्टा और विभूषा-कुशील, उसमें जो भिक्षु इस कृमि समूह के आवास समान, पंछी और श्वान के लिए भोजन समान । सड़ना, गिरना, नष्ट होना, ऐसे स्वभाववाला, अशुचि, अशाश्वत, असार ऐसे शरीर को हमेशा आहारादिक से पोषे और वैसे शरीर की चेष्टा करे, लेकिन सेंकड़ों भव में दुर्लभ ऐसे ज्ञान-दर्शन आदि सहित ऐसे शरीर से अति घोर वीर उग्र कष्टदायक घोर तप संयम के अनुष्ठान न आचरे उसे चेष्टा कुशील कहते हैं। और फीर जो विभूषा कुशील है वो भी कई तरह के-वो इस प्रकार-तेल से शरीर को अभ्यंगन करना, मालिश करना, लेप लगाना, अंग पुरुषन करवाना, स्नान-विलेपन करना, मैल घिसकर दूर करना, तंबोक खाना, धूप देना, खुशबूदार चीज से शरीर को वस्त्र वासित करना, दाँत घीसना, मुलायम करना, चहेरा सुशोभित बनाना, पुष्प या उसकी माला पहनना, बाल बनाना, जूते-पावड़ी इस्तमाल करना, अभिमान से गति करना, बोलना, हँसना, बैठना, उठना, गिरना, खींचना, शरीर की विभूषा दिखे उस प्रकार वस्त्रों को पहनना, दंड़ ग्रहण करना, ये सब को शरीर विभूषा कुशील साधु समझना । यह कुशील साधु प्रवचन की उड़ाहणा-उपघात करवानेवाले, जिसका भावि परिणाम दुष्ट है वैसे अशुभ लक्षणवाला, न देखने लायक महापाप कर्म करनेवाला विभूषा-कुशील साधु होता है । इस प्रकार दर्शनकुशील प्रकरण पूरा हुआ। सूत्र - ६२६ अब मूलगुण और उत्तरगुण में चारित्रकुशल अनेक प्रकार के जानना । उसमें पाँच महाव्रत और रात्रि भोजन छठा-ऐसे मूलगुण बताए हैं । वो छ के लिए जो प्रमाद करे, उसमें प्राणातिपात यानि पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति रूप एकेन्द्रियजीव, दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियवाले जीव का संघट्टा करना, परिताप उन किलामणा करनी, उपद्रव करना । मृषावाद दो तरह का-सूक्ष्म और बादर उसमें 'पयलाउल्लामरुए'' किसी साधु दिन में सोते हुए-झोके खा रहा था, दूसरे साधु ने उसे कहा कि-दिन में क्यों सो रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि मैं सो नहीं रहा । फीर से नींद आने लगी । झोका खाने लगा तब साधु ने कहा कि मत सो । तब प्रत्युत्तर मिला कि मैं सो नहीं रहा । तो यह सूक्ष्म मृषावाद । किसी साध बारिस होने के बावजद भी बाहर नीकले । दूसरे साधु ने कहा कि बारिस में क्यों जा रहे हो ? उसने कहा कि नहीं, मैं बारिस में नहीं जा रहा । ऐसा कहकर जाने लगा । यहाँ वासृधातु शब्द करना हो इसलिए शब्द होता हो तब मैं नहीं जाता । ऐसे छल के शब्द इस्तमाल करे वो सूक्ष्म मृषावाद । किसी साधु ने भोजन के वक्त कहा कि-भोजन कर लो । उसने उत्तर दिया कि मुजे पच्चक्खाण है-ऐसा कहकर तुरन्त खाने लगा, दूसरे साधु ने पूछा कि अभी-अभी पच्चक्खाण किया है, ऐसा कहता था और फीर भोजन करता है । तब उसने कहा कि क्या मैंने प्राणातिपात आदि पाँच महाव्रत की विरती का प्रत्याख्यान नहीं किया ? इस तरह से यह छलने के प्रयोग से सूक्ष्म मृषावाद लगे । सूक्ष्म मृषावाद और कन्यालीक आदि बादर मृषावाद कहलाता है। दिए बिना ग्रहण करना उसके दो भेद सूक्ष्म और बादर उसके तृण, पथ्थर, रक्षाकुंडी आदि ग्रहण करना वो मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 57Page Navigation
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