Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक ग्रहण करना या स्वाध्याय करनेवाले का वेयावच्च और प्रतिदिन ढाई हजार प्रमाण पंचमंगल के सूत्र, अर्थ और तदुभय का स्मरण करते हुए एकाग्र मन से रटन करे । हे भगवंत ! किस कारण से? (कहते हो?) हे गौतम ! जो भिक्षु जावज्जीव अभिग्रह रहित चारों काल यथाशक्ति वाचनादि समान स्वाध्याय न करे उसे ज्ञानकुशील माना है। सूत्र - ६०६
दूसरा - जो किसी यावज्जीव तक के अभिग्रह पूर्वक अपूर्वज्ञान का बोध करे, उसकी अशक्ति में पूर्व ग्रहण किए ज्ञान का परावर्तन करे, उसकी भी अशक्ति में ढाई हजार पंचमंगल नवकार का परावर्तन-जप करे, वो भी आत्मा आराधक है । अपने ज्ञानावरणीय कर्म खपाकर तीर्थंकर या गणधर होकर आराधकपन पाकर सिद्धि पाते हैं सूत्र-६०७-६१०
हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहलाता है कि चार काल में स्वाध्याय करना चाहिए ? हे गौतम ! मन, वचन और काया से गुप्त होनेवाली आत्मा हर वक्त ज्ञानावरणीय कर्म खपाती है । स्वाध्याय ध्यान में रहता हो वो हर पल वैराग्य पानेवाला बनता है । स्वाध्याय करनेवाले को उर्ध्वलोक, अधोलोक, ज्योतिष लोक, वैमानिक लोक, सिद्धि, सर्वलोक और अलोक प्रत्यक्ष है । अभ्यंतर और बाह्य ऐसे बारह तरह के तप के लिए सम्यग्दृष्टि आत्मा को स्वाध्याय समान तप नहीं हआ और होगा भी नहीं। सूत्र - ६११-६१५
एक, दो, तीन मासक्षमण करे, अरे ! संवत्सर तक खाए बिना रहे या लगातार उपवास करे लेकिन स्वाध्याय-ध्यान रहित हो वो एक उपवास का भी फल नहीं पाता । उद्गम उत्पादन एषणा से शुद्ध ऐसे आहार को हमेशा करनेवाला यदि मन, वचन, काया के तीन योग में एकाग्र उपयोग रखनेवाला हो और हर वक्त स्वाध्याय करता हो तो उस एकाग्र मानसवाले को साल तक उपवास करनेवाले के साथ बराबरी नहीं कर सकते । क्योंकि एकाग्रता से स्वाध्याय करनेवाले को अनन्त निर्जरा होती है । पाँच समिति, तीन गुप्ति, सहनशील, इन्द्रिय को दमन करनेवाला, निर्जरा की अपेक्षा रखनेवाला ऐसा मुनि एकाग्र मन से निश्चल होकर स्वाध्याय करता है । जो कोई प्रशस्त ऐसे श्रुतज्ञान को समझाते हैं, जो किसी शुभ भाववाला उसे श्रवण करता है, वो दोनो हे गौतम ! तत्काल आश्रव द्वार बन्ध करते हैं। सूत्र - ६१६-६१९
दुःखी ऐसे एक जीव को जो प्रतिबोध देकर मोक्ष मार्ग में स्थापन करते हैं, वो देवता और असुर सहित इस जगत में अमारी पड़ह बजानेवाले होते हैं, जिस तरह दूसरी धातु की प्रधानता युक्त सुवर्ण क्रिया बिना कंचनभाव को नहीं पाता । उस तरह सर्व जीव जिनोपदेश बिना प्रतिबोध नहीं पाते । राग-द्वेष और मोह रहित होकर जो शास्त्र को जाननेवाले धर्मकथा करते हैं । जो यथार्थ तरह से सूत्र और अर्थ की व्याख्या श्रोता को वक्ता कहे तो कहनेवाले को एकान्ते निर्जरा हो और सुननेवाले का निर्जरा हो या न हो। सूत्र- ६२०
हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि-जावज्जीव अभिग्रह सहित चार काल स्वाध्याय करना । और फिर हे गौतम ! जो भिक्षु विधिवत् सुप्रशस्त ज्ञान पढ़कर फिर ज्ञानमद करे वो ज्ञानकुशील कहलाता है । उस तरह ज्ञान कुशील की कईं तरह प्रज्ञापना की जाती है । सूत्र - ६२१-६२२
हे भगवंत ! दर्शनकुशील कितने प्रकार के होते हैं ? हे गौतम ! दर्शनकुशील दो प्रकार के हैं-एक आगम से और दूसरा नोआगम से।
उसमें आगम से सम्यग्दर्शन में शक करे, अन्य मत की अभिलाषा करे, साधु-साध्वी के मैले वस्त्र और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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