Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

Previous | Next

Page 61
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-४-कुशील संसर्ग सूत्र-६५४ हे भगवंत ! उस सुमति ने कुशील संसर्ग किस तरह किया था कि जिससे इस तरह के अति भयानक दुःख परीणामवाला भवस्थिति और कायस्थिति युक्त पार रहित भवसागर में दुःख संतप्त बेचारा वो भ्रमण करेगा । सर्वज्ञ-भगवंत के उपदेशीत अहिंसा लक्षणवाले क्षमा आदि दश प्रकार के धर्म को और सम्यक्त्व न पाएगा, हे गौतम ! वो बात यह है इस भारतवर्ष में मगध नाम का देश है। उसमें कुशस्थल नाम का नगर था, उसमें पुण्य-पाप समजनेवाले, जीव-अजीवादिक चीज का यथार्थ रूप जिन्होंने अच्छी तरह से पहचाना है, ऐसी विशाल ऋद्धिवाले सुमति और नागिल नाम के दो सगे भाई श्रावक धर्म का पालन करते थे । किसी समय अंतराय कर्म के उदय से उनका वैभव विलय हुआ । लेकिन सत्त्व और पराक्रम तो पहले से ही था । अचलित सत्त्व पराक्रमवाले, अत्यन्त परलोक भीरु, छल-कपट और झूठ से विरमित, भगवंत के बताए चार तरह के दान आदि धर्म का सेवन करते थे । श्रावक धर्म का पालन करते, किसी की बुराई न करते, नम्रता रखते, सरल स्वभाववाले, गुणरूप रत्न के निवास स्थान समान, क्षमा के सागर, सज्जन की मैत्री रखनेवाले, कईं दिन तक जिसके गुणरत्न का वर्णन किया जाए वैसे गुण के भंडार समान श्रावक थे। उनको अशुभ कर्म का उदय हआ और उनकी संपत्ति अब अष्टाह्निका महामहोत्सव आदि ईष्टदेवता की इच्छा अनुसार पूजा, सत्कार, साधर्मिक का सम्मान, बंधुवर्ग के व्यवहार आदि करने के लिए असमर्थ हुई । सूत्र-६५५-६६० अब किसी समय घर में महमान आते तो उसका सत्कार नहीं किया जा सकता । स्नेहीवर्ग के मनोरथ पूरे नहीं कर सकते, अपने मित्र, स्वजन, परिवार-जन, बन्धु, स्त्री, पुत्र, भतीजे, रिश्ते भूलकर दूर हट गए तब विषाद पानेवाले उस श्रावकों ने हे गौतम ! सोचा की, "पुरुष के पास वैभव होता है तो वो लोग उसकी आज्ञा स्वीकारते हैं। जल रहित मेघ को बीजली भी दूर से त्याग करती है ।'' ऐसा सोचकर पहले सुमति ने नागिलभाई को कहा कि, मान, धन रहित बदनसीब पुरुष को ऐसे देश में चले जाए कि जहाँ अपने रिश्तेदार या आवास न मिले और दूसरे ने भी कहा कि, "जिसके पास धन न हो, उसके पास लोग आते हैं, जिसके पास अर्थ हो उसके कईं बँधु होते हैं।" सूत्र-६६१ इस प्रकार वो आपस में एकमत हुए और वैसे होकर हे गौतम ! उन्होंने देशत्याग करने का तय किया किहम किसी अनजान देश में चले जाए । वहाँ जाने के बाद भी दीर्घकाल से चिन्तवन किए मनोरथ पूर्ण न हो तो और देव अनुकूल हो तो दीक्षा अंगीकार करे । उसके बाद कुशस्थल नगर का त्याग करके विदेश गमन करने का तय किया। सूत्र - ६६२ अब देशान्तर की और प्रयाण करनेवाले ऐसे उन दोनों ने रास्ते में पाँच साधु और छट्ठा एक श्रमणोपासकउन्हें दिखे । तब नागिल ने सुमति को कहा कि अरे सुमति ! भद्रमुख, देखो, इन साधुओं का साथ कैसा है तो हम भी इस साधु के समुदाय के साथ जाए । उसने कहा कि भले, वैसा करे । केवल एक मुकाम पर जाने के लिए प्रयाण करते थे तब नागिल ने सुमति को कहा कि हे भद्रमुख ! हरिवंश के तिलकभूत मरकत रत्न के समान श्याम कान्ति वाले अच्छी तरह से नाम ग्रहण करने के योग्य बाईसवे तीर्थंकर श्री अरिष्ठनेमि भगवंत के चरण कमल में सुख से बैठा था, तब इस प्रकार सुनकर अवधारण किया था कि इस तरह के अगणार रूप को धारण करनेवाले कुशील माने जाते हैं । और जो कुशील होते हैं उन्हें दृष्टि से भी देखना न कल्पे, इसलिए उनके साथ गमन संसर्ग थोड़ा सा भी करना न कल्पे, इसलिए उन्हें जाने दो, हम किसी छोटे साथे के साथ जाएंगे । क्योंकि तीर्थंकर के मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 61

Loading...

Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151