Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, DeepratnasagarPage 59
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक लिए भोजन करना कल्पे । भूख समान कोई दर्द नहीं इसलिए उसकी शान्ति के लिए भोजन करना । भूख से कमजोर देहवाला वैयावच्च करने में समर्थ नहीं हो सकता । इसलिए भोजन करना । इरियासमिति अच्छी तरह से न खोजे, प्रेक्षादिक संयम न सँभाल सके, स्वाध्यायादिक करने की शक्ति कम हो जाए, बल कम होने लगे, धर्मध्यान न कर सके इसलिए साधु को इस कारण से भोजन करना चाहिए । इस प्रकार पिंड़ विशुद्धि जानना। सूत्र - ६४४ अब पाँच समिति इस प्रकार बताई है-ईयासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभंड-मत्तनिक्षेपणा समिति और उच्चार-पासवण खेल सिंधाणजल्लपारिष्ठापनिका समिति और तीन गुप्ति, मन गुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति और बारह भावना वो इस प्रकार-१. अनित्यभावना, २. अशरण भावना, ३. एकत्वभावना, ४. अन्यत्वभावना, ५. अशुचिभावना, ६. विचित्र संसारभावना, ७. कर्म के आश्रव की भावना, ८. संवर भावना, ९. निर्जराभावना, १०. लोक विस्तार भावना, ११. तीर्थंकर ने अच्छी तरह से बताया हुआ और अच्छी तरह से प्ररूपा हुआ उत्तम धर्म की सोच समान भावना, १२. करोड़ जन्मान्तर में दुर्लभ ऐसी बोधि दुर्लभ भावना । यह आदि स्थानान्तर में जो प्रमाद करे उसे चारित्र कुशील जानना । सूत्र-६४५ तप कुशील दो तरह के एक बाह्य तप कुशील और दूसरा अभ्यन्तर तप कुशील । उसमें जो कोई मुनि विचित्र इस तरह का दीर्घकाल का उपवासादिक तप, उणोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, काय-क्लेश, अंगोपांग सिकुड़े रखने समान संलीनता । इस छ तरह के बाह्य तप में शक्ति होने के बाद भी जो उद्यम नहीं करते, वो बाह्य तप कुशील कहलाते हैं। सूत्र-६४६-६४७ बार तरह की भिक्षु प्रतिमा वो इस प्रकार-एक मासिकी, दो मासिकी, तीन मासिकी, चार मासिकी, पाँच मासिकी, छ मासिकी, सात मासिकी ऐसे सात प्रतिमा । आठवी सात अहोरात्र की, नौवी सात अहोरात्र की, दशवीं सात अहोरात्र की, ग्यारहवीं एक अहोरात्र की, बारहवीं एक रात्रि की ऐसी बारह भिक्षु प्रतिमा है। सूत्र - ६४८ ___ अभिग्रह-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । उसमें द्रव्य अभिग्रह में ऊंबाले ऊंड़द आदि द्रव्य ग्रहण करना, क्षेत्र से गाँव में या गाँव के बाहर ग्रहण करना, काल से प्रथम आदि पोरिसी में ग्रहण करना, भाव से क्रोधादिक कषायवाला जो मुजे दे वो ग्रहण करूँगा इस प्रकार उत्तरगुण संक्षेप से समास किए । ऐसा करने से चारित्राचार भी संक्षेप से पूर्ण हुआ । तपाचार भी संक्षेप से उसमें आ गया । और फीर वीर्याचार उसे कहते हैं कि जो इस पाँच आचार में न्यून आचार का सेवन न करे । इन पाँच आचार में जो किसी अतिचार में जान-बूझकर अजयणा से, दर्प से, प्रमाद से, कल्प से, अजयणा से या जयणा से जिस मुताबिक पाप का सेवन किया हो उस मुताबिक गुरु के पास आलोचना करके मार्ग जाननेवाले गीतार्थ गुरु जो प्रायश्चित्त दे उसे अच्छी तरह आचरण करे । इस तरह अठारह हजार शील के अंग में जिस पद में प्रमाद सेवन किया हो, उसे उस प्रमाद दोष से कुशील समझना चाहिए। सूत्र- ६४९ उस प्रकार ओसन्ना के लिए जानना । वो यहाँ हम नहीं लिखते । ज्ञानादिक विषयक पासत्था, स्वच्छंद, उत्सूत्रमार्गगामी, शबल को यहाँ ग्रंथ विस्तार के भय से नहीं लिखते । यहाँ कहीं कहीं जो-जो दूसरी वाचना हो वो अच्छी तरह से शास्त्र का सार जिसने जाना है, वैसे गीतार्थवर्य को रिश्ता जोड़ना चाहिए । क्योंकि पहले आदर्श प्रतमें काफी ग्रन्थ विप्रनष्ट हआ है। वहाँ जो-जो सम्बन्ध होनेके योग्य जडने की जरुर हई वहाँ कईं श्रतधर ने इकट्रे होकर अंग-उपांग सहित बारह अंग रूप श्रुत समुद्र में से बाकी अंग, उपांग, श्रुतस्कंध, अध्ययन, उद्देशामें से उचित मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 59Page Navigation
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