Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूक्ष्म अदत्तादान । घड़े बिना और घड़ा हुआ सुवर्ण आदि ग्रहण करने समान बादर अदत्तादान समझना।
और मैथुन दीव्य और औदारिक वो भी मन, वचन, काया, करण, करावण, अनुमोदन ऐसे भेद करते हुए अठ्ठारह भेदवाला जानना । और फीर हस्तकर्म सचित्त अचित्त भेदवाला या ब्रह्मचर्य की नवगुप्ति की विराधना करने द्वारा करके, शरीर वस्त्रादिक की विभूषा करने समान ।
मांडली में परिग्रह दो तरह से । सूक्ष्म और बादर । वस्त्रपात्र का ममत्वभाव से रक्षा करना । दूसरों को इस्तमाल करने के लिए न देना वो सूक्ष्म परिग्रह, हिरण्यादिक ग्रहण करना या धारण कर रखना । मालिकी रखनी, वो बादर परिग्रह । रात्रि-भोजन दिन में ग्रहण करना और रात को खाना, दिन में ग्रहण करके दूसरे दिन भोजन करना । रात को लेकर दिन में खाना । रात को लेकर रात में खाना । इत्यादि भेदयुक्त । सूत्र-६२७-६३२
उत्तर गुण के लिए पिंड़ की जो विशुद्धि, समिति, भावना, दो तरह के तप, प्रतिमा धारण करना, अभिग्रह ग्रहण करना आदि उत्तर गुण जानना । उसमें पिंड़ विशुद्धि-सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादना दोष, दस एषणा के दोष और संयोजनादिक पाँच दोष, उसमें उद्गम दोष इस प्रकार जानना । १. आधाकर्म, २. औद्देशिक, ३. पूति कर्म, ४. मिश्रजात, ५. स्थापना, ६. प्राभृतिका, ७. प्रादुष्करण, ८. क्रीत, ९. प्रामित्यक, १०. परावर्तित, ११. अभ्याहत, १२. उभिन्न, १३. मालोपहृत, १४. आछिद्य, १५. अतिसृष्ट, १६. अध्यव पूरक-ऐसे पिंड़ तैयार करने में सोलह दोष लगते हैं। सूत्र-६३३-६३५
उत्पादन के सोलह दोष इस प्रकार बताए हैं । १. धात्रीदोष, २. दुतिदोष, ३. निमित्तदोष, ४. आजीवकदोष, ५. वनीपकदोष, ६. चिकित्सादोष, ७. क्रोधदोष, ८. मानदोष, ९. मायादोष, १०. लोभदोष, यह इस दोष ११. पहले या बाद में होनेवाले परिचय का दोष, १२. विद्यादोष, १३. मंत्रदोष, १४. चूर्णदोष, १५. योगदोष और १६. मूलकर्मदोष-ऐसे उत्पादन के सोलह दोष लगते हैं। सूत्र - ६३६-६३७
एषणा के दस दोष इस प्रकार जानना - १. शक्ति, २. म्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४. पिहित, ५. संहृत, ६. दायक, ७. उन्मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्त, १०. छर्दित । सूत्र - ६३८
उसमें उद्गमदोष गृहस्थ से उत्पन्न होते हैं । उत्पादन के दोष साधु से उत्पन्न होनेवाले और एषणा दोष गृहस्थ और साधु दोनों से उत्पन्न होनेवाले हैं।
मांडली के पाँच दोष इस प्रकार जानना-१. संयोजना, २. प्रमाण से अधिक खाना, ३. अंगार, ४. घुम, ५. कारण अभाव-ऐसे ग्रासेसणा के पाँच दोष होते हैं । उसमें संयोजना दोष दो तरह के-१. उपकरण सम्बन्धी और २. भोजन पानी सम्बन्धी । और फीर उन दोनों के भी अभ्यन्तर और बाह्य । ऐसे दो भेद हैं - सूत्र - ६३९
प्रमाण-बत्तीस कवल प्रमाण । आहार कुक्षिपूरक माना जाता है । खाने में अच्छे लगनेवाले भोजनादिक राग से खाए तो उसमें ईंगाल दोष और अनचाहे में द्वेष हो तो धूम्र दोष लगता है। सूत्र- ६४०-६४३
कारणाभाव दोष
-क्षुधा वेदना सह न सके, कमझोर शरीर से वैयावच्च न हो सके, आँख की रोशनी कम हो जाए और इरियासमिति में क्षति हो । संयम पालन के लिए और जीव बचाने के लिए, धर्मध्यान करने के लिए, इस कारण के
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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