Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक शरीर देखकर दुगंछा करे । घृणा करे, धर्म करने का फल मिलेगा या नहीं, सम्यक्त्व आदि गुणवंत की तारीफ न करना । धर्म की श्रद्धा चली जाना । साधुपन छोड़ने की अभिलाषावाले को स्थिर न करना । साधर्मिक का वात्सल्य न करना या शक्ति होते हुए शासनप्रभाव भक्ति न करना । इस आठ स्थानक से दर्शनकुशील समझना ।
नोआगम से दर्शनकुशील के कोई प्रकार के समजे, वो इस प्रकार-चक्षकुशील, घ्राणकुशील, श्रवणकुशील, जिह्वाकुशील, शरीरकुशील, वे चक्षुकुशील तीन तरह के हैं । वो इस प्रकार-प्रशस्तचक्षुकुशील, प्रशस्ताप्रशस्त चक्षुकुशील और अप्रशस्त चक्षुकुशील । उसमें जो किसी प्रशस्त ऐसे ऋषभादिक तीर्थंकर भगवंत के बिंब के आगे दृष्टि स्थिर करके रहा हो वो प्रशस्त चक्षुकुशील और प्रशस्ताप्रशस्त चक्षुकुशील उसे कहते हैं कि हृदय और नेत्र से तीर्थंकर भगवंत की प्रतिमा के दर्शन करते-करते दूसरी किसी भी चीज की ओर नजर करे वो प्रशस्ताप्रशस्त कुशील कहलाता है । और फिर प्रशस्ताप्रशस्त द्रव्य जैसे कि कौआ, बग, ढंक, तित्तर, मोर आदि या मनोहर लावण्य युक्त खूबसूरत स्त्री को देखकर उसकी ओर नेत्र से दृष्टि करे वो भी प्रशस्ताप्रशस्त चक्षुकुशील कहलाता है। और फिर अप्रशस्त चक्षुकुशील-लैंसठ तरह से अप्रशस्त सरागवाली चक्षु कहा है।
हे भगवंत ! वो अप्रशस्त तैसठ चक्षुभेद कौन से हैं ? हे गौतम ! वो इस प्रकार - १. सभ्रकटाक्षा, २. तारा, ३. मंदा, ४. मदलसा, ५. वंका, ६. विवंका, ७. कुशीला, ८. अर्ध इक्षिता, ९. काण-इक्षिता, १०. भ्रामिता, ११. उद्भ्रामिता, १२. चलिता, १३. वलिता, १४. चलवलिता, १५. अर्धमिलिता, १६. मिलिमिला, १७. मनुष्य, १८. पशवा, १९. यक्षिका, २०. सरीसृपा, २१. अशान्ता, २२. अप्रशान्ता, २३. अस्थिरा, २४. बहुविकाशा, २५. सानुराग, २६. रागउदारणी, २७. रोगजा-राजगा, २८. आमय-उत्पादानी-मद उत्पादनी, २९. मदनी, ३०. मोहणी, ३१. व्यामोहनी, ३२. भय-उदीरणी, ३३. भयजननी, ३४. भयंकरी, ३५. हृदयभेदनी, ३६. संशय-अपहरणी, ३७. चित्तचमत्कार उत्पादनी, ३८. निबद्धा, ३९. अनिबद्धा, ४०. गता, ४१. आगता, ४२. गता गता, ४३. गतागत-पत्यागता, ४४. निर्धारनी, ४५. अभिलषणी, ४६. अरतिकरा, ४७. रतिकरा, ४८. दीना, ४९. दयामणी, ५०. शुरा, ५१. धीरा, ५२. हणणी, ५३. मारणी, ५४. तापणी, ५५. संतापणी, ५६. क्रुद्धा-प्रक्रुद्धा, ५७. धीरा महाधीरा, ५८. चंड़ी, ५९.
दा-सुरुद्रा, ६०. हाहाभूतशरणा, ६१. रूक्षा, ६२. स्निग्धा, ६३. रूक्ष स्निग्धा (इस प्रकार कुशील दृष्टि यहाँ बताई है, उस नाम के अनुसार अर्थ-व्याख्या समज लेना ।)
स्त्रीयों के चरण अँगूठे, उसका अग्र हिस्सा, नाखून, हाथ जो अच्छी तरह से आलेखेल हो, लाल रंग या अलता से गात्र और नाखून रंगे हो, मणि कि किरणें इकटे होने के कारण से जैसे मेघधनुष न हो वैसे नाखून को, कछुए की तरह उन्नत चरण को अच्छी तरह से गोल रखे गए गूढ जानुओ, जंघाओ, विशाल कटी तट के स्थान को, जघन, नीतम्ब, नाभि, स्तन, गुप्तस्थान के पास की जगह, कंठ, भुजालिष्ट, अधर, होठ, दंतपंक्ति, कान, नासिका, नेत्रयुगल, भ्रमर, मुख, ललाट, मस्तक, केश, सेथी, टेढ़ी केशलट, पीठ, तिलक, कुंडल, गाल, अंजन श्याम वर्णवाले तमाल के पत्र समान केश कलाप, कंदोरा, नुपूर, बाहु रक्षक मणि रत्न जड़ित कंगन, कंकण, मुद्रिका आदि मनोहर और झिलमिल रहे आभूषण, रेशमी पतले वस्त्र, सुतराउ वेश आदि से सजावट करके कामाग्नि को प्रदीप्त करनेवाली नारकी और तिर्यंचगति में अनन्त दुःख दिलानेवाली इन स्त्रीओं के अंग उपांग आभूषण आदि को अभिलाषा पूर्वक सराग नजर से देखना वो चक्षुकुशील कहलाता है। सूत्र - ६२३-६२४
घ्राणकुशील उसे कहते हैं जो अच्छी सुगंध लेने के लिए जाए और दुर्गंध आती हो तो नाक टेढ़ा करे, दुगंछा करे और श्रवणकुशील दो तरह के समझना, प्रशस्त और अप्रशस्त । उसमें जो भिक्षु अप्रशस्त कामराग को उत्पन्न करनेवाले, उद्दीपन करनेवाले, उज्जवल करनेवाले, गंधर्वनाटक, धनुर्वेद, हस्त शिक्षा, कामशास्त्र, रतिशास्त्र आदि श्रवण कर के उस की आलोचना न करे यावत् उसका प्रायश्चित्त आचरण न करे उसे अप्रशस्त श्रवण कुशील मानना
और जिह्वाकुशील कईं तरह के मानना, वो इस प्रकार-कटु, तीखे, स्वादहीन, मधुर, खट्टे, खारा रस का
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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