Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक शरीरवाला, हर्षित हुए मुखारविंदवाला, श्रद्धा, संवेग, विवेक परम वैराग से और फिर जिसने गहरे राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व समान मल कलंक को निर्मूलपन से विनाश किया है वैसी, सुविशुद्ध, अति निर्मल, विमल, शुभ, विशेष शुभ इस तरह के आनन्द पानेवाले, भुवनगुरु जिनेश्वर की प्रतिमा के लिए स्थापना किये हुए दृष्टि और मानसवाला, एकाग्र चित्तवाला वाकई में धन्य हूँ, पुण्यशाली हूँ | जिनेश्वर को वंदन करने से मैंने मेरा जन्म सफल किया है।
ऐसा मानते हुए ललाट के ऊपर दो हाथ जोड़कर अंजलि की रचना करनेवाले सजीव वनस्पति बीज जन्तु आदि रहित भूमि के लिए दोनों जानुओं स्थापन करके अच्छी तरह से साफ हृदय से सुन्दर रीती से जाने हुए जिसने यथार्थ सूत्र अर्थ और तदुभव निःशंकित किए हैं ऐसा, पद-पद के अर्थ की भावना भाता हुआ, दृढ़ चारित्र, शास्त्र को जाननेवाला, अप्रमादातिशय आदि कईं गुण संपत्तिवाले गुरु के साथ, साधु, साध्वी, साधर्मिक बन्धुवर्ग परिवार सहित प्रथम उसको चैत्य को जुहारना चाहिए । उसके बाद यथाशक्ति साधर्मिक बन्धु को प्रणाम करने पूर्वक अति किंमती कोमल साफ वस्त्र की पहरामणी करके उसका महा आदर करना चाहिए उनका सुन्दर सम्मान करना । इस वक्त शास्त्र के सार जिन्होंने अच्छी तरह से समझा है । ऐसे गुरु महाराज को विस्तार से आक्षेपणी निक्षेपणी धर्मकथा कहकर संसार का निर्वेद उत्पाद श्रद्धा, संवेग वर्धक धर्मोपदेश देना चाहिए। सूत्र-५९६-५९७
उसके बाद परम श्रद्धा संवेग तत्पर बना जानकर जीवन पर्यन्त के कुछ अभिग्रह देना । जैसे कि हे देवानुप्रिय ! तुने वाकई ऐसा सुन्दर मानवभव पाया उसे सफल किया । तुझे आज से लेकर जावज्जीव हमेशा तीन काल जल्दबाझी किए बिना शान्त और एकाग्र चित्त से चैत्य का दर्शन, वंदन करना, अशुचि अशाश्वत क्षणभंगुर ऐसी मानवता का यही सार है । रोज सुबह चैत्य और साधु को वंदन न करु तब तक मुख में पानी न डालना । दोपहर के वक्त चैत्यालय में दर्शन न करूँ तब तक मध्याहन भोजन न करना । शाम को भी चैत्य के दर्शन किए बिना संध्याकाल का उल्लंघन न करना । इस तरह के अभिग्रह या नियम जीवनभर के करवाना । उसके बाद हे गौतम ! आगे बताएंगे उस (वर्धमान) विद्या से मंत्रीत करके गुरु को उसके मस्तक पर सात गंधचूर्ण की मुष्ठि डालनी और ऐसे आशीर्वाद के वचन कहना कि इस संसार समुद्र का निस्तार करके पार पानेवाला बन ।
वर्धमान विद्या-ॐ नमो भगवओ अरहओ सिज्झउ मे भगवती महाविज्जा वीरे महावीरे जयवीर सेणवीरे वद्धमाण वीरे जयंते अपराजिए स्वाहा।
उपवास करके विधिवत् साधना करनी चाहिए । इस विद्या से हर एक धर्माराधना में तूं पार पानेवाला बन । बडी दीक्षा में, गणीपद की अनुज्ञा में सात बार इस विद्या का जप करना और निन्थारग पारगा होह ऐसा कहना। अंतिम साधना अनसन अंगीकार करे तब मंत्रीत करके वासक्षेप किया जाए तो आत्मा आराधक बनता है । इस विद्या के प्रभाव से विघ्न के समूह उपशान्त उत्पन्न होता है । शूरवीर पुरुष संग्राम में प्रवेश करे तो किसी से पराभव नहीं होता । कल्प की समाप्ति में मंगल और क्षेम करनेवाला होता है। सूत्र-५९८
और फिर साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका समग्र नजदीकी साधर्मिक भाई, चार तरह के श्रमण संघ के विघ्न उपशान्त होते हैं और धर्मकार्य में सफलता पाते हैं। और फिर उस महानुभाव को ऐसा कहना कि वाकई तुम धन्य हो, पुण्यवंत हो, ऐसा बोलते-बोलते वासक्षेप मंत्र करके ग्रहण करना चाहिए।
उसके बाद जगद्गुरु जिनेन्द्र की आगे के स्थान में गंधयुक्त, न मुझाई हुई श्वेत माला ग्रहण करके गुरु महाराज अपने हस्त से दोनों खंभे पर आरोपण करते हुए निःसंदेह रूप से इस प्रकार कहना-कि-अरे महानुभाव ! जन्मान्तर में उपार्जित किए महापुण्य समूहवाले ! तुने तेरा पाया हुआ, अच्छी तरह से उपार्जित करनेवाला मानव जन्म सफल किया, हे देवानुप्रिय ! तुम्हारे नरकगति और तिर्यंचगति के द्वार बन्द हो गए । अब तुजे अपयश अपकीर्ति हल्के गौत्र कर्म का बँध नहीं होगा । भवान्तर में जाएगा वहाँ तुम्हे पंच नमस्कार अति दुर्लभ नहीं होगा।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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