Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक फिर भगवंत की गेरमोजुदगी में शोक पाए हुए वो देव अपने गात्र को बहते अश्रुजल के सरसर शब्द करनेवाले प्रवाह से जिस तरह धो रहे थे । और फिर दुःखी स्वर से विलाप करते थे कि हे स्वामी ! हमे अनाथ बनाया । जिस तरह सुरभी गंधयुक्त गोशीर्ष चंदनवृक्ष के काष्ट से सर्व देवेन्द्र ने विधिवत् भगवंत के देह का अग्निसंस्कार किया। संस्कार करने के बाद शोक पानेवाले शून्य दश दिशा के मार्ग को देखते थे । जिस तरह क्षीर-सागर में जिनेश्वर के अस्थि को प्रक्षालन करके देवलोक में ले जाकर श्रेष्ठ चंदन रस से उन अस्थि का विलेपन करके अशोकवृक्ष, पारिजात वृक्ष के पुष्प और शतपत्र सहस्र पत्र जाति के कमल से उसकी पूजा करके अपने अपने भवन में जिस तरह स्तुति करते थे । (वो सर्व वृत्तांत महा विस्तार से अरिहंत चरित्र नाम) अंतगड़ दशा से जानना। सूत्र-५८६-५८९
यहाँ अभी जो चालु अधिकार है उसे छोड़कर यदि यह कहा जाए तो विषयान्तर असंबद्धता और ग्रंथ का लम्बा विस्तार हो जाए । प्रस्ताव न होने के बावजूद भी इतना भी हमने निरुपण किया उसमें अति बड़ा कारण उपदेशीत है जो यहाँ बताया है। उन भव्य सत्त्व के उपकार के लिए कहा गया है। अच्छे वसाणा से मिश्रित मोदक का जिस तरह भक्षण किया जाता है, वैसे लोगों में अति बड़ी मानसिक प्रीति उत्पन्न होती है । उस तरह यहाँ अवसर न होने के बावजूद भी भक्ति के बोझ से निर्भर और निजगुण ग्रहण करने में खींचे हए चित्तवाले भवात्मा को बड़ा हर्ष उत्पन्न होता है। सूत्र-५९०
यह पंचमंगल महाश्रुतस्कंध नवकार का व्याख्यान महा विस्तार से अनन्तगम और पर्याय सहित सूत्र से भिन्न ऐसे नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि से अनन्त ज्ञान-दर्शन धारण करनेवाले तीर्थंकर ने जिस तरह व्याख्या की थी। उसी तरह संक्षेप से व्याख्यान किया जाता था। लेकिन काल की परिहाणी होने के दोष से वो नियुक्ति भाष्य, चूर्णिका विच्छेद पाकर इस तरह का समय-काल बह गया था, तब महा-ऋद्धि, लब्धि, संपन्न पदानुसारी लब्धिवाले व्रजस्वामी नाम के बारह अंग रूप श्रुत को धारण करनेवाले उत्पन्न हुए । उन्होंने पंचमंगल महाश्रुतस्कंध का यह उद्धार मूलसूत्र के बीच लिखा । गणधर-भगवंत ने मूलसूत्र को सूत्रपन से, धर्म तीर्थंकर अरहंत भगवंत ने अर्थ से बताया । तीन लोक से पूजित वीर जिनेन्द्र ने इसकी प्ररूपणा की इस प्रकार से वृद्ध आचार्य का सम्प्रदाय है। सूत्र-५९१
यहाँ जहाँ जहाँ पद पद के साथ जुड़े हो और लगातार सूत्रालापक प्राप्त न हो वहाँ श्रुतधर ने लहीयाओं ने झूठ लिखा है । ऐसा दोष मत देना लेकिन जो किसी इस अचिन्त्य चिन्तामणी और कल्पवृक्ष समान महानिशीथ श्रुतस्कंध की पूर्वादर्श पहले की लिखी हुई प्रति थी उसमें ही ऊधई आदि जीवांत से खाकर उस कारण से टुकड़ेवाली प्रत हो गई । काफी पत्ते सड़ गए तो भी अति अतिशयवाला बड़े अर्थ से भरपूर यह महानिशीथ श्रुतस्कंध है । समग्र प्रवचन के परम सारभूत श्रेष्ठ तत्त्वपूर्ण महा, अर्थ, गर्भित है ऐसा जानकर प्रवचन के वात्सल्य से कईं भव्यजीव को उपकारमंद होंगे ऐसा मानकर और अपने आत्मा के हित के लिए आचार्य हरिभद्रसूरी ने जो उस आदर्श में लिखा, वो सर्व अपनी मति से शुद्ध करके लिखा है। दूसरे भी आचार्य-सिद्धेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन, क्षमाश्रमण के शिष्य रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणि, क्षमक, सत्यर्षी आदि युग प्रधान श्रुतधर ने उसे बहुमान्य रखा है। सूत्र - ५९२
हे गौतम ! इस प्रकार आगे कहने के अनुसार विनय-उपधान सहित पंचमंगल महा-श्रुतस्कंध (नवकार) को पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी से स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्दु और पदाक्षर से शुद्ध तरह से पढ़कर उसे दिल में स्थिर और परिचित करके महा विस्तार से सूत्र और अर्थ जानने के बाद क्या पढ़ना चाहिए?
हे गौतम ! उसके बाद इरियावहिय सूत्र पढ़ना चाहिए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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