Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक क्योंकि हे गौतम ! धर्मतीर्थ प्रवर्तानेवाले अरिहंत भगवंत अपरिमित गुणरत्नवाले होते हैं । इसलिए यहाँ उनके लिए क्या बताए ? जहाँ तीन लोक के नाथ जगत के गुरु, तीन भूवन के एक बन्धु, तीन लोक के वैसे-वैसे उत्तम गुण के आधार समान श्रेष्ठ धर्म तीर्थंकर के वरण का एक अंगूठे के अग्र हिस्सेका केवल एक हिस्सा कईं गुण के समह से शोभायमान है। उसमें अनन्ता हिस्से का रूप इन्द्रादि वर्णन करने के लिए समर्थ नहीं है । ये बात विशेष बताते हुए कहते हैं
देव और इन्द्र या वैसे किसी भक्ति में लीन हुए सर्व पुरुष कईं जन्मान्तर में उपार्जन किए गए अनिष्ट दुष्ट कर्मराशि जनित दुर्गति उद्वेग आदि दुःख दारिद्रय, क्लेश, जन्म, जरा, मरण, रोग, संताप, खिन्नता, व्याधि, वेदना आदि के क्षय के लिए उनके अँगूठे के गुण का वर्णन करने लगे तो सूर्य के किरणों के समूह की तरह भगवान के जो कईं गुण का समूह एक साथ उनके जिह्वा के अग्र हिस्से पर स्फूरायमान होता है, उसे इन्द्र सहित देवगण एक साथ बोलने लगे तो भी जिसका वर्णन करनेके लिए शक्तिमान नहीं है, तो फिर चर्मचक्षुवाले अकेवली क्या बोलेंगे?
इसलिए हे गौतम ! इस विषय में यहाँ यह परमार्थ समजे कि तीर्थंकर भगवंत के गुण सागर को अकेले केवलज्ञानी तीर्थंकर ही कहने के लिए शक्तिवर हैं । दूसरे किसी कहने के लिए समर्थ नहीं हो सकते । क्योंकि उनकी बोली सातिशय होती है । इसलिए वो कहने के लिए समर्थ है । या हे गौतम ! इस विषय में ज्यादा कहने से क्या ? सारभूत अर्थ बताता हूँ वो इस प्रकार हैसूत्र - ४९५-४९६
समग्र आठ तरह के कर्म समान मल के कलंक रहित, देव और इन्द्र से पूजित चरणवाले जीनेश्वर भगवंत का केवल नाम स्मरण करनेवाले मन, वचन, काया समान तीन कारण में एकाग्रतावाला, पल-पल में शील और संयम में उद्यम-व्रत नियम में विराधना न करनेवाली आत्मा यकीनन अल्प काल में तुरंत सिद्धि पाती है। सूत्र-४९७-४९९
जो किसी जीव संसार के दुःख से उद्वेग पाए और मोक्ष सुख पाने की अभिलाषावाला बने तब वो जैसे कमलवन में भ्रमर मग्न बन जाए उसी तरह'' भगवंत को स्तवना, स्तुति, मांगलिक जय जयारव शब्द करने में लीन हो जाए और झणझणते गुंजारव करते भक्ति पूर्व हृदय से जिनेश्वर के चरण-युगल के आगे भूमि पर अपना मस्तक स्थापन करके अंजलि जोड़कर शंकादि दूषण सहित सम्यक्त्ववाला चारित्र का अर्थी अखंड़ित व्रत-नियम धारण करनेवाला मानवी यदि तीर्थंकर के एक ही गुण को हृदय में धारण करे तो वो जरुर सिद्धि पाता है। सूत्र-५००
हे गौतम ! जिनका पवित्र नाम ग्रहण करना ऐसे उत्तम फलवाला है ऐसे तीर्थंकर भगवंत के जगत में प्रकट महान आश्चर्यभूत, तीन भुवन में विशाल प्रकट और महान ऐसे अतिशय का विस्तार इस प्रकार का है। सूत्र-५०१-५०३
केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और चरम शरीर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया ऐसे जीव भी अरिहंत के अतिशय को देखकर आठ तरह के कर्म का क्षय करनेवाले होते हैं । ज्यादा दुःख और गर्भावास से मुक्त होते हैं, महायोगी होते हैं, विविध दुःख से भरे भवसागर से उद्विग्न बनते हैं । और पलभर में संसार से विरक्त मनवाला बन जाता है । या हे गौतम ! दूसरा कथन करना एक ओर रखकर, लेकिन इस तरह से धर्म तीर्थंकर ऐसे श्रेष्ठ अक्षरवाला नाम है । वो तीन भुवन के बन्धु, अरिहंत, भगवंत, जीनेश्वर, धर्म तीर्थंकर को ही शोभा देता है । दूसरों को यह नाम देना शोभा नहीं देता । क्योंकि उन्होंने मोह का उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य लक्षणयुक्त कईं जन्म में छूनेवाले प्रकट किए गए सम्यग्दर्शन और उल्लास पाए हुए पराक्रम की शक्ति को छिपाए बिना उग्र कष्टदायक घोर दुष्कर तप का हमेशा सेवन करके उच्च प्रकार के महापुण्य स्कंध समूह को उपार्जित किया है । उत्तम, प्रवर, पवित्र, समग्र विश्व के बन्धु, नाम और श्रेष्ठ स्वामी बने होते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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