Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक से सुप्रशस्त ज्ञान ऐसे पाँच तरह के ज्ञान की या सुप्रशस्त ज्ञान धारण करनेवालों की आशातना करनेवाला यानि सुप्रशस्त ज्ञान कुशील। सूत्र -४९०
___नोआगम से सुप्रशस्त ज्ञान कुशील आठ तरह के - अकाल सुप्रशस्त ज्ञान पढ़े, पढ़ाए, अविनय से सुप्रशस्त ज्ञान ग्रहण करे, करवाए, अबहुमान से सुप्रशस्त ज्ञान पठन करे, उपधान किए बिना सुप्रशस्त ज्ञान पढ़ना, पढ़ाना, जिसके पास सुप्रशस्त सूत्र अर्थ पढ़े हो उसे छिपाए, वो स्वर-व्यंजन रहित, कम अक्षर, ज्यादा अक्षरवाले सूत्र पढ़ना, पढ़ाना, सूत्र, अर्थ विपरीतपन से पढ़ना, पढ़ाना । संदेहवाले सूत्रादिक पढ़ना-पढ़ाना । सूत्र -४९१
यह आठ तरह के पद को जो किसी उपधान वहन किए बिना सुप्रशस्त ज्ञान पढ़े या पढ़ाए, पढ़नेवाले या पढ़ानेवालेको अच्छे मानकर अनुमोदना करे वो महापाप कर्म सुप्रशस्त ज्ञान की महा आशातना करनेवाला होता है सूत्र -४९२
हे भगवंत ! यदि ऐसा है तो क्या पंच मंगल के उपधान करने चाहिए ? हे गौतम ! प्रथम ज्ञान और उसके बाद दया यानि संयम यानि ज्ञान से चारित्र-दया पालन होता है । दया से सर्व जगत के सारे जीव-प्राणी-भूत-सत्त्व को अपनी तरह देखनेवाला होता है । जगत के सर्व जीव, प्राणी, भूत सत्त्व को अपनी तरह सुख-दुःख होता है, ऐसा देखनेवाला होने से वो दूसरे जीव के संघट्ट करने के लिए परिताप या कीलामणा-उपद्रव आदि दुःख उत्पन्न करना, भयभीत करना, त्रास देना इत्यादिक से दूर रहता है । ऐसा करने से कर्म का आश्रव नहीं होता । कर्म का आश्रव बन्द होने से कर्म आने के कारण समान आश्रव द्वार बन्द होते हैं । आश्रव के द्वार बन्द होने से इन्द्रिय का दमन और आत्मा में उपशम होता है।
इसलिए शत्रु और मित्र के प्रति समान भाव सहितपन होता है । शत्रु मित्र के प्रति समान भाव सहितपन से रागद्वेष रहितपन उससे क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता होने से कषाय रहितपन प्राप्त होता है । कषाय रहितपन होने से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व होने से जीवादिक चीज का ज्ञान होता है । वो होने से सर्व ममतारहितपन होता है । सभी चीजों में ममता न रहने से अज्ञान मोह और मिथ्यात्व का क्षय होता है । यानि विवेक आता है। विवेक होने से हेय और उपादेय चीज की यथार्थ सोच और एकान्त मोक्ष पाने के लिए दृढ़ निश्चय होता है
इससे अहित का परित्याग और हित का आचरण हो वैसे कार्य में अति उद्यम करनेवाला बने । उसके बाद उत्तरोत्तर परमार्थ स्वरूप पवित्र उत्तम क्षमा आदि दश तरह के, अहिंसा लक्षणवाले धर्म का अनुष्ठान करने और करवाने में एकाग्र और आसक्त चित्रवाला होता है । उसके बाद यानि कि क्षमा आदि दश तरह के और अहिंसा लक्षण युक्त धर्म का अनुष्ठान का सेवन करना और करवाना उसमें एकाग्रता और आसक्त चित्तवाले आत्मा को सर्वोत्तम क्षमा, सर्वोत्तम मृदुता, सर्वोत्तम सरलता, सर्वोत्तम बाह्य धन, सुवर्ण आदि परिग्रह और काम क्रोधादिक अभ्यंतर परिग्रह स्वरूप सर्व संग का परित्याग होता है । और सर्वोत्तम बाह्य अभ्यन्तर ऐसे बारह तरह के अति घोर वीर उग्र कष्टवाले तप और चरण के अनुष्ठान में आत्मरमणता और परमानन्द प्रकट होता है।
आगे सर्वोत्तम सत्तरह प्रकार के समग्र संयम अनुष्ठान परिपालन करने के लिए बद्धलक्षपन प्राप्त होता है। सर्वोत्तम सत्य भाषा बोलना, छ काय जीव का हीत, अपना बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम छिपाए बिना मोक्ष मार्ग की साधना करने में कटिबद्ध हुए सर्वोत्तम स्वाध्याय ध्यान समान जल द्वारा पापकर्म समान मल के लेप को प्रक्षाल करनेवाला - धोनेवाला होता है । और फिर सर्वोत्तम अकिंचनता, सर्वोत्तम परमपवित्रता सहित, सर्व भावयुक्त सुविशुद्ध सर्व दोष रहित, नव गुप्ति सहित, १८ परिहार स्थानक से विरमित यानि १८ तरह के अब्रह्म का त्याग करनेवाला होता है।
उसके बाद यह सर्वोत्तम क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शोच, आकिंचन्य, अतिदुर्धर,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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