Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक ब्रह्मवत् धारण करना इत्यादिक शुभ अनुष्ठान से सर्व समारम्भ का त्याग करनेवाला होता है। फिर पथ्वी, पानी. अग्नि, वायु, वनस्पति रूप स्थावर जीव दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियवाले जीव का और अजीव काय का सरंभ, समारम्भ, आरम्भ को मन, वचन, काया के त्रिक से त्रिविध त्रिविध से श्रोत्रादि इन्द्रिय के विषय के संवरपूर्वक आहारादि चार संज्ञा का त्याग करके पाप को वोसिराता है।
फिर निर्मल अठ्ठारह हजार शीलांग धारण करनेवाला होने से अस्खलित, अखंडित, अमलिन, अविराधित, सुन्दर, उग्र, उग्रतर, विचित्र, आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला अभिग्रह का निर्वाह करनेवाला होता है । फिर देवता, मनुष्य, तिर्यंच के किए हुए घोर परिषह उपसर्ग को समता रखकर सहनेवाले होते हैं। उसके बाद अहोरात्र आदि प्रतिमा के लिए महा कोशीश करनेवाला होता है । फिर शरीर की-टापटीप रहित ममतारहित होता है । शरीर निष्प्रतिक्रमणवाला होने से शुक्ल ध्यान में अड़ोलपन पाता है।
फिर अनादि भव परम्परा से इकटे किए समग्र आठ तरह के कर्म राशि का क्षय करनेवाला होता है । चार गति रूप भव के कैदखाने में से बाहर नीकलकर सर्व दुःख से विमुक्त होकर मोक्ष में गमन करनेवाला होता है। मोक्ष के भीतर सदा के लिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, अनिष्ट का मिलन, इष्ट का वियोग, संताप, उद्वेग, अपयश, झूठा आरोप लगाना, बड़ी व्याधि की वेदना, रोग, शोक, दारिद्र, दुःख, भय, वैमनस्य आदि दुःख नहीं होते, फिर वहाँ एकान्तिक आत्यन्तिक निरुपद्रवतावाला, मिला हुआ वापस न चला जाए ऐसा, अक्षय, ध्रुव, शाश्वत हमेशा रहनेवाला सर्वोत्तम सुख मोक्ष में होता है।
यह सर्व सुख का मूल कारण ज्ञान है । ज्ञान से ही यह प्रवृत्ति शुरु होती है इसलिए हे गौतम ! एकान्तिक आत्यन्तिक, परम शाश्वत, ध्रुव, निरन्तर, सर्वोत्तम सुख की ईच्छा वाले को सबसे पहले आदर सहित सामायिक सूत्र से लेकर लोकबिन्दुसार तक बारह अंग स्वरूप श्रुतज्ञान कालग्रहण विधि सहित आयंबिल आदि तप और शास्त्र में बताई विधिवाले उपधान वहन करने पूर्वक, हिंसादिक पाँच को त्रिविध त्रिविध से त्याग करके उसके पाप का प्रतिक्रमण करके सत्र के स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्द पद, अक्षर, कम ज्यादा न बोल सके वैसे पदच्छेद दोष, गाथाबद्ध, क्रमसर, पूर्वानुपूर्वी, आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी सहित सुविशुद्ध गुरु के मुख से विधिवत् विनय सहित ग्रहण किया हो ऐसा ज्ञान एकांते संदर समझना।
हे गौतम ! आदि और बिना अन्त के किनारा रहित अति विशाल ऐसे स्वयंभूरमण समुद्र की तरह जिसमें दुःख से करके अवगाहन कर सकते हैं । समग्र सुख की परम कारण समान ही तो वो श्रुतज्ञान है । ऐसे ज्ञान सागर को पार करने के लिए इष्ट देवता को नमस्कार करना चाहिए । इष्ट देवता को नमस्कार किए बिना कोई उसको पार नहीं कर सकते इसलिए हे गौतम ! यदि कोई इष्ट देव हो तो नवकार । यानि कि पंचमंगल ही है । उसके अलावा दूसरे किसी इष्टदेव मंगल समान नहीं है । इसलिए प्रथम पंच मंगल का ही विनय उपधान करना जरुरी है। सूत्र -४९३
हे भगवंत ! किस विधि से पंचमंगल का विनय उपधान करे? हे गौतम ! आगे हम बताएंगे उस विधि से पंचमंगल का विनय उपधान करना चाहिए।
अति प्रशस्त और शोभन तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न, चन्द्रबल हो तब आठ तरह के मद स्थान से मुक्त हो, शंका रहित श्रद्धासंवेग जिसके अति वृद्धि पानेवाले हो, अति तीव्र महान उल्लास पानेवाले, शुभ अध्यवसाय सहित, पूर्ण भक्ति और बहुमान से किसी भी तरह के आलोक या परलोक के फल की ईच्छारहित बनकर लगातार पाँच उपवास के पच्चक्खाण करके जिन मंदिर में जन्तुरहित स्थान में रहकर जिसका मस्तक भक्तिपूर्ण बना है । हर्ष से जिसके शरीर में रोमांच उत्पन्न हुआ है, नयन समान शतपत्रकमल प्रफुल्लित होता है । जिसकी नजर प्रशान्त, सौम्य, स्थिर है। जिसके हृदय सरोवर में संवेग की लहरे उठी है।
अति तीव्र, महान, उल्लास पानेवाले कईं, घन-तीव्र आंतरा रहित, अचिंत्य, परम शुभ, परिणाम विशेष से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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