Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, DeepratnasagarPage 35
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ४३८-४४३ हे गौतम ! मोक्ष मार्ग दो तरह का बताया है । एक उत्तम श्रमण का और दूसरा उत्तम श्रावक का । प्रथम महाव्रतधारी का और दूसरा अणुव्रतधारी का । साधुओं ने त्रिविध त्रिविध से सर्व पाप व्यापार का जीवन पर्यन्त त्याग किया है । मोक्ष के साधनभूत घोर महाव्रत का श्रमण ने स्वीकार किया है। गृहस्थ ने परिमित काल के लिए द्विविध, एकविध या त्रिविध स्थूलपन से सावध का त्याग किया है, यानि श्रावक देश से व्रत अंगीकार करते हैं । जब कि साधुओंने त्रिविध त्रिविध से मूर्छा, ईच्छा, आरम्भ, परिग्रह का त्याग किया है । पाप वोसिराकर जिनेश्वर के लिंग-चिन्ह या वेश धारण किया है । जब गृहस्थ ईच्छा आरम्भ परिग्रह के त्याग किए बिना अपनी स्त्री में आसक्त रहकर जिनेश्वर के वेश को धारण किए बिना श्रमण की सेवा करते हैं, इसलिए हे गौतम ! एक देश से गृहस्थ पाप त्याग व्रत का पालन करते हैं, इसलिए उसके मार्ग की गृहस्थ को आशातना नहीं होती। सूत्र-४४४-४४५ जिन्होंने सर्व पाप का प्रत्याख्यान किया है । पंच महाव्रत धारण किया है, प्रभु के वेश को स्वीकार किया है। वो यदि मैथुन अप्काय अग्निकाय सेवन का त्याग न करे तो उनको बड़ी आशातना बताई है । उसी कारण से जिनेश्वर इन तीन में बड़ी आशातना कहते हैं । इसलिए उन तीन का मन से भी सेवन के लिए अभिलाषा मत करो। सूत्र-४४६-४४७ हे गौतम ! काफी दृढ़ सोचकर यह कहा है कि यति अबोधिलाभ का कर्म बाँधे और गृहस्थ अबोधिलाभ न बाँधे । और फिर संयत मुनि इन तीन आशय से अबोधिलाभ कर्म बाँधते हैं । १. आज्ञा का उल्लंघन, २. व्रत का भंग और ३. उन्मार्ग प्रवर्तन । सूत्र-४४८ मैथुन, अपकाय और तेऊकाय इन तीन के सेवन से अबोधिक लाभ होता है । इसलिए मुनि को कोशीश करके सर्वथा इन तीनों का त्याग करना चाहिए। सूत्र - ४४९ जो आत्मा प्रायश्चित्त का सेवन करे और मन में संक्लेश रखे और फिर जो कहा हो उसके अनुसार न करे, तो वो नरक में जाए। सूत्र-४५० हे गौतम ! जो मंद श्रद्धावाला हो, वो प्रायश्चित्त न करे, या करे तो भी क्लिष्ट मनवाला होकर करता है । तो उनकी अनुकंपा करना विरुद्ध न माना जाए? सूत्र - ४५१-४५२ हे गौतम! राजादि जब संग्राममें युद्ध करते हैं, तब उसमें कुछ सैनिक घायल होते हैं, तीर शरीर में जाता है तब तीर बाहर नीकालने से या शल्य उद्धार करने से उसे दुःख होता है । लेकिन शल्य उद्धार करने की अनुकंपा में विरोध नहीं माना जाता । शल्य उद्धार करनेवाला अनुकंपा रहित नहीं माना जाता, वैसे संसार समान संग्राम में अंगोपांग के भीतर या बाहर के शल्य-भाव शल्य रहे हो उसका उद्धार करने में अनुपम अनुकंपा भगवंत ने बताई सूत्र-४५३-४५५ हे भगवंत ! जब तक शरीर में शल्य हो तब तक जीव दुःख का अहसास करते हैं, जब शल्य नीकाल देते हैं तब सुखी होते हैं । उसी प्रकार तीर्थंकर, सिद्धभगवंत, साधु और धर्म को धोखा देकर जो कुछ भी अकार्य आचरण किया हो उस का प्रायश्चित्त कर सुखी होता है । भावशल्य दूर होने से सुखी हो, वैसे आत्मा के लिए प्रायश्चित्त करने से कौन-सा गुण होगा ? बेचारे दीन पुरुष के पास दुष्कर और दुःख में आचरण किया जाए वैसे मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 35Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151