Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 33
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक हे गौतम ! यदि कोई साधु-साध्वी दीव्य, मानव या तिर्यंच संग से यावत् हस्तकर्म आदि सचित्त चीज विषयक दुष्ट अध्यवसाय कर के मन, वचन, काया से खुद मैथुन सेवे, दूसरों को प्रेरणा उपदेश देकर मैथुन सेवन करवाए, सेवन करनेवाले को अच्छा माने, कृत्रिम और स्वाभाविक उपकरण से उसी तरह त्रिविध-त्रिविध मैथुन का सेवन करे, करवाए या अनुमोदना करे वो साधु-साध्वी दुरन्त बूरे विपाकवाले पंत-असुंदर, अति बूरा, मुख भी जिसका देखनेलायक नहीं है, संसारमार्ग का सेवन करनेवाला, मोक्षमार्ग से दूर, महापाप कर्म करनेवाला वो वंदन करने लायक नहीं है। वंदन करवाने लायक नहीं है। वंदन करनेवालेको अच्छा मानने लायक नहीं है, त्रिविधे वंदन के उचित नहीं या जहाँ तक प्रायश्चित्त करके विशुद्धि न हो, तब तक दूसरे वंदन करते हो तो खुद वंदन न करना। हे भगवंत ! ऐसे लोगों को जो वंदन करे वो क्या पाए ? हे गौतम ! अठारह हजार शीलांग धारण करनेवाले महानुभाव तीर्थंकर भगवंत की महान् आशातना करनेवाला होता है । और आशातना के परिणाम को आश्रित करके यावत् अनन्त संसारीपन पाता है। सूत्र-४१३-४१५ हे गौतम ! ऐसे कुछ जीव होते हैं कि जो स्त्री का त्याग अच्छी तरह से कर सकते हैं। मैथुन को भी छोड़ देते हैं । फिर भी वो परिग्रह की ममता छोड़ नहीं सकते । सचित्त, अचित्त या उभययुक्त बहुत या थोड़ा जितने प्रमाण में उसकी ममता रखते हैं, भोगवटा करते हैं, उतने प्रमाण में वो संगवाला कहलाता है । संगवाला प्राणी ज्ञान आदि तीन की साधना नहीं कर सकता, इसलिए परिग्रह का त्याग करो। सूत्र - ४१६ हे गौतम ! ऐसे जीव भी होते हैं कि जो परिग्रह का त्याग करते हैं, लेकिन आरम्भ का नहीं करते, वो भी उसी तरह भव परम्परा पानेवाले कहलाते हैं । सूत्र-४१७ हे गौतम ! आरम्भ करने के लिए तैयार हआ और एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीव के संघटन आदि कर्म करे तो हे गौतम ! वो जिस तरह का पापकर्म बाँधे उसे तू समझ।। सूत्र - ४१८-४२० किसी बेइन्द्रिय जीव को बलात्कार से उसी अनिच्छा से एक वक्त के लिए हाथ से पाँव से दूसरे किसी सली आदि उपकरण से अगाढ़ संघट्ट करे । संघट्टा करवाए, ऐसा करनेवाले को अच्छा माने । हे गौतम ! यहाँ इस प्रकार बाँधा हुआ कर्म जब वो जीव के उदय में आता है, तब उसके विपाक बड़े क्लेश से छ महिने तक भुगतना पड़ता है। वो ही कर्म गाढ़पन से संघट्ट करने से बारह साल तक भुगतना पड़ता है । अगाढ़ परिताप करे तो एक हजार साल तक और गाढ़ परिताप करे तो दश हजार साल तक, अगाढ़ कीलामणा करे तो एक लाख साल, गाढ़ कीलामणा करे तो दश लाख साल तक उसके परिणाम-विपाक जीव को भुगतने पड़ते हैं । मरण पाए तो एक करोड़ साल तक उस कर्म की वेदना भुगतनी पड़े। उसी तरह तीन, चार, पाँच इन्द्रियवाले जीव के लिए भी समझो हे गौतम ! सूक्ष्म पृथ्वीकाय के एक जीव की जिसमें विराधना होती है उसे सर्व केवली अल्पारंभ कहते हैं । हे गौतम ! जिसमें सूक्ष्म पृथ्वीकाय को विनाश होता है, उसे सर्व केवली महारंभ कहते हैं । सूत्र - ४२१ हे गौतम ! उस तरह उत्कट कर्म अनन्त प्रमाण में इकटे होते हैं । जो आरम्भ में प्रवर्तते हैं वो आत्मा उस कर्म से बँधता है। सूत्र-४२२-४२३ आरम्भ करनेवाला बद्ध, स्पृष्ट और निकाचित अवस्थावाले कर्म बाँधते हैं इसलिए आरम्भ का त्याग करना चाहिए । पृथ्वीकाय आदि जीव का सर्व भाव से सर्व तरह से अंत लानेवाले आरम्भ का जिसने त्याग किया हो वो मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 33

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