Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पुदगल परावर्तन काल तक बोधि पाए या न पाए। सूत्र- ३३०-३३१
इस प्रकार व्रत-नियम का भंग करे, व्रत-नियम तोड़नेवाले की उपेक्षा करे, उसे स्थिर न करे, शील-खंडन करे, अगर शील खंडन करनेवाले की उपेक्षा करे, वो संयम विराधना करे या संयम विराधक की उपेक्षा करे, उन्मार्ग का प्रवर्तन करे और ऐसा करते हुए न रोके, उत्सूत्र का आचरण करे और सामर्थ्य होते हुए भी उसे न रोके या उपेक्षा करे, वो सब आगे वर्णित क्रम से चारों गतिरूप संसार में परिभ्रमण करता है। सूत्र - ३३२-३३३
सामनेवाला आदमी क्रोधित बने या तोषायमान बने, झहर खाकर मरण की बातें करे या भय बताता हो तो भी हमेशा स्वपक्ष को गुण करनेवाला खुद को या दूसरों का हित हो वैसा ही भाषा बोलनी इस तरह हितकारी वचन बोलनेवाला बोध पाए या पाए हुए बोधि को निर्मल करता है। सूत्र - ३३४-३३५
खुले आश्रव द्वारवाले जीव प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और रस से कर्म की चिकनाईवाले होते हैं । वैसी आत्मा कर्म का क्षय या निर्जरा कर सके इस तरह घोर आठ कर्म में मल में फंसे हुए सर्व जीव को दुःख से छूटकारा किस तरह मिले ? पूर्व दुष्कृत्य पाप कर्म किए हो, उस पाप का प्रतिक्रमण न किया हो ऐसे खुद के किए हुए कर्म भुगते बिना अघोर तप का सेवन किए बिना उस कर्म से मुक्त नहीं हो सकते । सूत्र-३३६-३३७
सिद्धात्मा, अयोगी और शैलेशीकरण में रहे सिवाय तमाम संसारी आत्मा हरएक वक्त कर्म बाँधते हैं । कर्मबंध बिना कोई जीव नहीं है । शुभ अध्यवसाय से शुभ कर्म, अशुभ अध्यवसाय से अशुभ कर्मबंध, तीव्रतर परिणाम से तीव्रतर रसस्थितिवाले और मंद परिणाम से मंदरस और अल्प स्थितिवाले कर्म उपार्जित करे। सूत्र - ३३८
सर्व पापकर्म इकट्ठे करने से जितना रासिढ़ग हो, उसे असंख्यात गुना करने से जितना कर्म का परिमाण हो उतने कर्म, तप, संयम, चारित्र का खंडन और विराधना करने से और उत्सूत्र मार्ग की प्ररूपणा, उत्सूत्र मार्ग की आचरणा और उसकी उपासना करने से उपार्जन होता है। सूत्र - ३३९
यदि सर्व दानादि स्व-पर हित के लिए आचरण किया जाए तो अ-परिमित महा, ऊंचे, भारी, आंतरा रहित गाढ पापकर्म का ढग भी क्षय हो जाए । संयम-तप के सेवन से दीर्घकाल के सर्व पापकर्म का विनाश हो जाता है। सूत्र-३४०-३४४
यदि सम्यक्त्व की निर्मलता सहित आनेवाले आश्रवद्वार बंध करके जब वहाँ अप्रमादी बने तब वहाँ बंध अल्प करे और काफी निर्जरा करे, आश्रवद्वार बंध करके जब प्रभु की आज्ञा का खंडन न करे और ज्ञान-दर्शन चारित्र से दृढ़ बने तब पहले के बांधे हुए सर्व कर्म खपा दे और अल्प स्थितिवाले कर्म बाँधे, उदय न हए हो वैसे वैसे कर्म भी घोर उपसर्ग परिषह सहकर उदीरणा करके उसका क्षय करे और कर्म पर जय पाए । इस प्रकार आश्रव के कारण को रोककर सर्व आशातना का त्याग करके स्वाध्याय ध्यान योग में और फिर धीर वीर ऐसे तप में लीन बने, सम्पूर्ण संयम मन, वचन, काया से पालन करे तब उत्कृष्ट बंध नहीं करता और अनन्त गुण कर्म की निर्जरा करता
सूत्र-३४५-३४८
सर्व आवश्यक क्रिया में उद्यमवन्त बने हए, प्रमाद, विषय, राग, कषाय आदि के आलम्बन रहित बाह्य अभ्यंतर सर्व संग से मुक्त, रागद्वेष मोह सहित, नियाणा रहित बने, विषय के राग से निवृत्त बने, गर्भ परम्परा से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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