Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

Previous | Next

Page 24
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक भय लगे, आश्रव द्वार का रोध करके क्षमादि यतिधर्म और यमनियमादि में रहा हो, उस शुक्ल ध्यान की श्रेणी में आरोहण करके शैलेशीकरण प्राप्त करता है, तब लम्बे अरसे से बाँधा हुआ समग्र कर्म जलाकर भस्म करता है, नया अल्प कर्म भी नहीं बाँधता । ध्यानयोग की अग्नि में पाँच ह्रस्वाक्षर बोले जाए उतने कम समय में भव तक टिकनेवाले समग्र कर्म को जलाकर राख कर देता है। सूत्र - ३४९-३५० इस प्रकार जीव के वीर्य और सामर्थ्य योग से परम्परा से कर्म कलंक के कवच से सर्वथा मुक्त होनेवाले जीव एक समय में शाश्वत, पीड़ा रहित रोग, बुढ़ापा, मरण से रहित, जिसमें किसी दिन दुःख या दारिद्र न देखा जाता हो । हमेशा आनन्द का अहसास हो वैसे सुखवाला शिवालय-मोक्षस्थान पाता है। सूत्र-३५१-३५३ हे गौतम ! ऐसे जीव भी होते हैं कि जो आश्रवद्वार बन्ध कर के क्षमादि दशविध संयम स्थान आदि पाया हुआ हो तो भी दुःख मिश्रित सुख पाता है । इसलिए जब तक समग्र आठ कर्म घोर तप और संयम से निर्मूलसर्वथा जलाए नहीं, तब तक जीव को सपने में भी सुख नहीं हो सकता । इस जगतमें सर्व जीव को विश्रान्ति बिना दुःख लगातार भुगतना होता है । एक समय भी ऐसा नहीं जिसमें इस जीवने आया हुआ दुःख समता से सहा हो सूत्र-३५४-३५५ कुंथुआ के जीव का शरीर कितना? हे गौतम ! वो तु यदि सोचे- छोटे से छोटा, उससे भी छोटा, उससे भी काफी अल्प उसमें कुंथु, उसका पाँव कितना ? पाँव की धार तो केवल छोटे से छोटा हिस्सा, उसका हिस्सा भी यदि हमारे शरीर को छु ले या किसी के शरीर पर चले तो भी हमारे दुःख का कारण न बने । लाख कुंथुआ के शरीर को इकट्ठे करके छोटे तराजू से तोल-नाप करके उसका भी एक पल (मिलिग्राम) न बने, तो एक कुंथु का शरीर कितना हो ? ऐसे छोटे एक कुंथुआ के पाँव की धार के हिस्से के स्पर्श को सह नहीं सकते और पादाग्र हिस्से को छूने से आगे कहे अनुसार वैसी दशा जीव सहते हैं । हे गौतम ! वैसे दुःख के समय कैसी भावना रखनी वो सून । सूत्र - ३५६-३६५ कुंथु समान छोटा जानवर मेरे मलीन शरीर पर भ्रमण करे, संचार करे, चले तो भी उसको खुजलाकर नष्ट न करे लेकिन रक्षण करे, यह हमेशा यहाँ नहीं रहेगा । शायद दूसरे पल में चला जाए, दूसरे पल में नहीं रहेगा। शायद दूसरे पल में न चला जाए तो हे गौतम ! इस प्रकार भावना रखनी, यह कुंथु राग से नहीं बसा या मुज पर उसे द्वेष नहीं, क्रोध से, मत्सर से, ईर्ष्या से, बैर से मुझे उँसता नहीं या क्रीड़ा करने की ईच्छा से मुजे डॅसता नहीं। कुंथु वैर भाव से किसी के शरीर पर नहीं चड़ता । वो तो किसी के भी शरीर पर ऐसे ही चड़ जाता है । विकलेन्द्रिय हो, बच्चा हो, दूसरे किसी जानवर हो, या जलता हुआ अग्नि और वावड़ी के पानी में भी प्रवेश करे । वो कभी भी यह न सोचे कि यह मेरे पूर्व का बैरी है या मेरा रिश्तेदार है इसलिए आत्मा को ऐसा सोचना चाहिए कि इसमें मेरी आशातना-पाप का उदय हुआ है ।ऐसे जीव के प्रति मैंने कौन-सी अशाता का दुःख किया होगा । पूर्वभव में किए गए पापकर्म के फल भुगतने का या उस पाप पूंज का अन्त लाने के लिए मेरे आत्मा के हित के लिए यह कौन-सा तिरछी, ऊर्ध्व, अधो दिशा और विदिशा में मेरे शरीर पर इधर-उधर घूमता है । इस दुःख को समभाव से सहन करूँगा तो मेरे पापकर्म का अन्त होगा। शायद कुंथु को शरीर पर घूमते-घूमते महावायरा की झपट लगी हो तो उस कुंथु को शारीरिक दुस्सह दुःख और रौद्र और आर्तध्यान का महादुःख वृद्धि पाए । ऐसे वक्त में सोचो कि इस कुंथुआ के स्पर्श से तुझे थोड़ा भी दुःख हआ है वो भी तुम सह नहीं सकते और आर्त रौद्र ध्यान में चला जाता है तो उस दुःख के कारण से तू शल्य का आरम्भ करके मनोयोग, वचनयोग, काययोग, समय, आवलिका, मुहूर्त तक शल्यवाला होकर उसका फल तुम्हें दीर्घकाल तक सहना पड़ेगा उस वक्त वैसे दुःख को तू किस तरह सह सकेगा? मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 24

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151