Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय
लक्षण इस प्रकार किया है-"आत्मप्रदेशों के साथ जो (कर्मपुद्गल) क्षीरनीरवत् एकमेक होकर स्थित हो जाते हैं, रहते हैं, या बन्ध जाते हैं वे बन्धन या बन्ध कहलाते हैं। ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म ही एक प्रकार के बन्धन हैं । तत्त्वार्थसूत्र में बन्ध का लक्षण दिया है-'कषायसहित (रागद्वषादि परिणामयुक्त) जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्ध है ।'
बन्धन (कर्मबन्ध) के कारण–प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'बंधणं' (बन्धन) शब्द में बन्धन के कारणों को भी ग्रहण करना चाहिए । क्योंकि ज्ञानावरणीय आदि कर्म बन्धन रूप हैं, इतना जान लेने मात्र से बन्धन से छुटकारा नहीं हो सकता, यही कारण है कि आगे की गाथाओं में बन्धन का स्वरूप न बता कर बन्धन के कारणों का स्वरूप और उनकी पहचान बतायी गई है । अगली गाथाओं में विवक्षित परिग्रह, हिंसा, मिथ्यादर्शन आदि बन्धन (कर्मबन्धन) के कारण हैं । इसलिए यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके बन्धन शब्द का प्रयोग किया गया है।
निष्कर्ष यह है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कारण रूप हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, अथवा परिग्रह और आरम्भ आदि । ये ही यहाँ बन्धन हैं । तत्त्वार्थसूत्र में बन्ध के ५ मुख्य कारण बताये गए हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इन्हीं को लेकर यहाँ दो प्रश्न किये गये हैं।
बन्धन का मुख्य कारण : परिग्रह-प्रथम गाथा में बन्धन (के कारण) के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया था। अतः उसके उत्तर के रूप में यह दूसरी गाथा है। पहले बताया गया था कि 'अविरति' कर्मबन्ध के पांच मुख्य कारणों में से एक है । अविरति के मुख्यतया पांच भेद हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य
और परिग्रह । इनमें परिग्रह को कर्मबन्ध का सबसे प्रबल कारण मानकर शास्त्रकार ने सर्वप्रथम उसे ही ग्रहण किया है। क्योंकि हिंसाएँ परिग्रह को लेकर होती है. संसार के सभी समारम्भरूप कार्य 'मैं और मेरा, इस प्रकार की स्वार्थ, मोह, आसक्ति, ममत्व और तष्णा की बुद्धि से होते हैं और यह परिग्रह है। असत्य भी परिग्रह के लिए बोला जाता है । चोरी का तो मूल ही परिग्रह है और अब्रह्मचर्य सेवन भी अन्त रंग परिग्रह-आसक्ति के कारण होता है। इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मायामृषा तक के १७ पापों का स्थान, आदिकारण परिग्रह ही है। इस कारण परिग्रह समस्त कमबन्धना का प्रधान कारण बनता है।
परिग्रह का लक्षण और पहचान -किसी भी सजीव और निर्जीव, भावात्मक पदार्थ के प्रति ममत्त्व बुद्धि होने के साथ उसे ग्रहण करने पर ही वह परिग्रह होता है, अन्यथा नहीं। परिग्रह का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है....किसी भी पदार्थ को द्रव्य और भावरूप से सभी ओर से ग्रहण करना या ममत्वबुद्धि से रखना परिग्रह है।
५ बध्यते जीवप्रदेशैरन्योऽन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थाप्यत इति बन्धनम् । ज्ञानावरणीयाष्टप्रकारं कर्म ।
-सूत्रकृ० शी टीका पत्र १२ ६ (क) सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्त स बन्ध ।
-तत्त्वार्थ० अ० ८ सू० ३ ७ (क) सूत्र० शीला टीका पत्र०१२ -"तद्धतवो वा मिथ्यात्वाविरत्यादयः परिग्रहारम्भादयो वा।" (ख) मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः ।'
-तत्त्वार्थ० अ० ८ सू० १ (ग) सूत्रकृतांग प्रथम भाग समयार्थबोधिनी व्याख्या सहित (पूज्य श्री घासीलाल जी म०) पृ० २० ८ (क) परि-समन्ताद् ममत्वबुद्धया द्रव्यभावरूपेण गृह्यते इति परिग्रहः। -सूत्र० अमर सुखबोधिनी व्याख्या पृ २२