Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
वीर्य-अष्टम अध्ययन
प्राथमिक - सूत्रकृतांग सूत्र (प्र० श्रु०) के अष्टम अध्ययन का नाम 'वीर्य' है। .. वीर्य शब्द शक्ति, सामर्थ्य, पराक्रम, तेज, दीप्ति, अन्तरंग शक्ति, आत्मबल, शरीरस्थित एक धातु
शुक्र आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।' D नियुक्तिकार ने शक्ति अर्थ में द्रव्य वीर्य के मुख्य दो प्रकार बताए हैं-सचित्त द्रव्य वीर्य और
अचित्तद्रव्य वीर्य । इसी तरह क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य और भाववीर्य भी बताए हैं। → प्रस्तुत अध्ययन में भावत्रीर्य का निरूपण है । वीर्य शक्तियुक्त जीव की विविध वीर्य सम्बन्धी
लब्धियाँ भाववीर्य हैं । वह मुख्यतया ५ प्रकार का है-मनोवीर्य, वाग्वीर्य, कायवीर्य, इन्द्रियवीर्य और आध्यात्मिकवीर्य । जीव अपनी योगशक्ति द्वारा मनोयोग्य पुद्गलों को मन के रूप से, भाषायोग्य पुद्गलों को भाषा के रूप में, काययोग्य पुद्गलों को काया के रूप में और श्वासोच्छवास के योग्य पुद्गलों को श्वासोच्छवास के रूप में परिणत करता है तब वह मनोवीर्य, वाग्वीर्य, कायवीर्य तथा इन्द्रियवीर्य कहलाता है । ये चारों ही वीर्य सम्भववीर्य और सम्भाव्यवीर्य के रूप में
दो-दो प्रकार के होते हैं। - आध्यात्मिक वीर्य आत्मा को आन्तरिक शक्ति से उत्पत्र सात्त्विकबल है। आध्यात्मिक वीर्य अनेक
प्रकार का होता है । 'वीर्य प्रवाद' नामक पूर्व में उसके अगणित प्रकार बताए गए हैं। नियुक्ति
कार ने आध्यात्मिक वीर्य में मुख्यतया दस प्रकार बताए हैं- (१) उद्यम (ज्ञानोपार्जन तपश्चरण आदि में आन्तरिक उत्साह), (२) धृति (संयम और चित्त में
स्थैर्य), (३) धीरत्व (परीषहों और उपसर्गों के समय अविचलता), (४) शौण्डीर्य (त्याग की उत्साहपूर्ण उच्चकोटि की भावना), (५) क्षमाबल, (६) गाम्भीर्य (अद्भुत साहसिक या चामत्कारिक कार्य करके भी अहंकार न आना, या परीषहोपसर्गों से न दबना), (७) उपयोगबल (निराकार उपयोग (दर्शन), एवं साकार उपयोग (ज्ञान) रखकर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप स्वविषयक निश्चय करना, (८) योगबल (मन, वचन और काया से व्यापार करना) (8) तपोबल (बारह प्रकार के तप में पराक्रम करना, खेदरहित तथा उत्साहपूर्वक तप करना) और, (१०) संयम में पराक्रम (१७ प्रकार के संयम के पालन में तथा अपने संयम को निदोष रखने में पराक्रम करना।
१ पाइअ सहमहण्णवो पृ० ८१४