Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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गाचा ४४४ से ४४६
से निरपेक्ष-निःस्पृह रहे, (५) अपने द्वारा त्यक्त सजीव निर्जीव पदार्थों के सम्बन्ध में अन्तर में शोक (चिन्ता) न करे।'
पाठान्तर और व्याख्याएं-'चेच्चाण अंतगं सोयं =वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं-(१) अन्तर में ममत्वरूप दुष्परित्याज्य शोक को छोड़कर, (२) संयमी जीवन का अन्त-विनाश करने वाला मिथ्यात्वादि पंचाश्रवस्रोत अथवा शोक (चिन्ता) छोड़कर, (३) आत्मा में व्याप्त होने वाले-आन्तरिक शोक-संताप को छोड़कर । इसके बदले पाठान्तर है-'चिच्चा णणं गं सोय' इसके भी दो अर्थ वत्तिकार ने किये हैं-(१) जिसका अन्त कदापि नहीं होता, ऐसे अनन्तक उस कर्माश्रवस्रोत या (२) स्वदेहादि के प्रति होने वाले शोक को छोड़कर । चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है - 'चेच्च ण अत्तगं सोतं'-अर्थात् -आत्मा में होने वाले श्रोत कर्माश्रवद्वारभूत स्रोत को छोड़कर अथवा अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व के अनन्त पर्यायों को छोड़कर । निरवेक्खो-'निरपेक्ष' का आशय यह है कि साधु जिन सजीव निर्जीव वस्तुओं पर से ममत्व छोड़ चुका है, उनसे या उनकी कोई भी या किसी भी प्रकार की अपेक्षा-आशा न रखे। एक आचार्य ने कहा है-जिन साधकों ने परपदार्थों या परिग्रह की अपेक्षा रखी वे ठगा गए, जो उनसे निरपेक्ष रहे, वे निर्विघ्नता से संसार सागर को पार कर गए । जो साधक भोगों की अपेक्षा रखते हैं, वे घोर संसारसमुद्र में डूब जाते हैं, जो भोगों से निरपेक्ष रहते हैं, वे सुखपूर्वक संसाररूपी अटवी को पार कर लेते हैं।
मलगुणगत-दोष त्याग का उपदेश
४४४. पुढवाऽऽऊ अगणि वाऊ तण रुक्ख सबीयगा।
अंडया पोय-जराऊ-रस-संसेय-उब्भिया ॥ ८ ॥ ४४५. एतेहिं छहि काहि, तं विज्जं परिजाणिया। .
मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही ॥ ६ ।
१ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७७-१७८ के आधार पर २ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७८
(ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि.) पृ० ८० ३ (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक १७८ (ख) छलिया अवयक्खंता, निरावयक्खा गया अविग्घेणं ।
तम्हा पवयणसारे निरावयक्खेण होयव्वं ॥१॥ भोगे अवयक्खंता पडंति संसारसायरे घोरे। भोगेहि निरवयक्खा, तरंति संसारकतारं ॥२॥
---सूत्रकृ० शीलांक वृत्ति पत्रांक १७८ में उद्ध त