Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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गाथा ५०३ से ५०८
५०८. पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणह ।
मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो ॥ १२ ॥
५०३. पृथ्वी जीव है, पृथ्वी के आश्रित भी पृथक्-पृथक् जीव हैं, जल एवं अग्नि भी जीव है, वायुकाय के जीव भी पृथक्-पृथक् हैं तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज रूप में वनस्पतियाँ) भी जीव हैं ।
५०४. इन (पूर्वोक्त पाँच स्थावर जीव निकाय) के अतिरिक्त (छठे ) त्रसकाय वाले जीव होते हैं । इस प्रकार तीर्थंकरों ने जीव के छह निकाय ( भेद) बताए हैं । इतने ही (संसारी) जीव के भेद हैं । इसके अतिरिक्त संसार में और कोई जीव ( का मुख्य प्रकार ) नहीं होता ।
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५०५. बुद्धिमान पुरुष सभी अनुकूल (संगत ) युक्तियों से ( इन जीवों में जीवत्व) सिद्ध करके भलीभाँति जाने-देखे कि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है ( सभी सुखलिप्सु हैं), अतः किसी भी प्राणी की हिंसा न करे ।
५०६. ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का यही सार - निष्कर्ष है कि वह किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता । अहिंसा प्रधान शास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्त या उपदेश जानना चाहिए ।
५०७. ऊपर, नीचे और तिरछे (लोक में) जो कोई त्रस और स्थावर जीव हैं, सर्वत्र उन सबकी हिंसा से विरति (निवृत्ति) करना चाहिए। ( इस प्रकार ) जीव को शान्तिमय निर्वाण मोक्ष की प्राप्ति कही गई है ।
५०८.. इन्द्रियविजेता साधक दोषों का निवारण करके किसी भी प्राणी के साथ जीवनपर्यन्त मन से, वचन से या काया से वैर विरोध न करे ।
विवेचन - अहिंसा का मार्ग - इन छहः सूत्रगाथाओं में मोक्षमार्ग के सर्वप्रथम सोपान - अहिंसा के विधिमार्ग का निम्नोक्त सात पहलुओं से प्रतिपादन किया गया है - ( १ ) त्रस - स्थावररूप षट्काय में जीव . (चेतना) का अस्तित्व है, (२) किसी भी जीव को दुःख प्रिय नहीं है, (३) हिंसा से जीव को दुःख होता है, अतः किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । ( ४ ) ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार अहिंसा है । (५) अहिंसाशास्त्र का भी इतना ही सिद्धान्तसर्वस्व है कि लोक में जो कोई त्रस या स्थावर जीव हैं, साधक उनकी हिंसा से सदा सर्वत्र विरत हो जाए । (६) अहिंसा ही शान्तिमय निर्वाण की कुँजी है, (७) अतः मोक्ष-मार्गपालनसमर्थं व्यक्ति को अहिंसा के सन्दर्भ में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, एवं योगरूप दोषों को दूरकर किसी भी प्राणी के साथ मन-वचन-काया से जीवन भर वैर-विरोध नहीं करना चाहिए।
एषणासमिति मार्ग-विवेक
५०६. संडे से महापणे, धोरे दत्तेसणं चरे । एसणासमिए णिच्ां, वज्जयंते असणं ॥ १३ ॥
२ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २०० का सारांश