Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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जमतीतं : पण्णरसमं अज्झयणं
___ यमकीय (जमतीत)-पन्द्रहवां अध्ययन अनुत्तरज्ञानी और तत्कथित भावनायोगसाधना
६०७ जमतीतं पडुप्पण्णं, आगमिस्सं च णायगो।
सम्वं मण्णति तं तातो, वंसणावरणंतए ॥१॥ ६०८ अंतए वितिगिछाए, से जाणति अणेलिसं।
अणेलिसस्स अक्खाया, ण से होति तहिं तहिं ॥२॥ ६०६ तहि तहि सुयक्खायं, से य सच्चे सयाहिए।
सदा सच्चेण संपण्णे, मेत्ति भूतेहिं कप्पते ॥३॥ ६१० भूतेहिं न विरुज्झेज्जा, एस धम्मे वुसीमओ।
वुसीमं जगं परिण्णाय, अस्सि जीवितभावणा ॥४॥ ६११ भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया।
नावा व तीरसंपत्ता, सव्वदुक्खा तिउट्टति ॥५॥ ६०७. जो पदार्थ (अतीत में) हो चुके हैं, जो पदार्थ वर्तमान में विद्यमान हैं और जो पदार्थ भविष्य में होने वाले हैं, उन सबको दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा अन्त करने वाले जीवों के नातारक्षक, धर्मनायक तीर्थंकर जानते-देखते हैं।
६०८. जिसने विचिकित्सा (संशय) का सर्वथा अन्त (नाश) कर दिया है, वह (घातिचतुष्टय का क्षय करने के कारण) अतुल (अप्रतिम) ज्ञानवान् है । जो पुरुष सबसे बढ़कर वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करने वाला है, वह उन-उन (बौद्धादि दर्शनों) में नहीं होता। __ . ६०६. (श्री तीर्थंकरदेव ने) उन-उन (आगमादि स्थानों) में जो (जीवादि पदार्थों का) अच्छी तरह से कथन किया है, वही सत्य है और वही सुभाषित (स्वाख्यात) है। अतः सदा सत्य से सम्पत्र होकर प्राणियों के साथ मैत्री भावना रखनी चाहिए।