Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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गाहा : सोलसमं अज्झयणं
___ गाथा : षोडश अध्ययन
माहण-श्रमण-परिभाषा-स्वरुप
६३२. अहाह भगवं-एवं से दंते दविए वोसटुकाए ति वच्चे माहणे ति वा १ समणे ति वा २,
भिक्खू ति वा ३, णिग्गंथे ति वा ४ । ६३३. पडिआह-मंते ! कहं दंते दविए वोसटकाए ति वच्चे माहणे ति वा समणे ति वा भिक्खू - ति वा णिग्गंथे ति वा ? तं नो बूहि महामुणी !
६३२. पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययन कहने के बाद भगवान् ने कहा-इस प्रकार (पन्द्रह अध्ययनों में उक्त) अर्थों-गुणों से युक्त जो साधक दान्त (इन्द्रियों और मन को वश में कर चुका) है, द्रव्य (भव्यमोक्षगमनयोग्य) है, जिसने शरीर के प्रति ममत्व त्याग दिया है। उसे माहन, श्रमण, भिक्षु या निर्ग्रन्थ कहना चाहिए।
६३३ शिष्य ने प्रतिप्रश्न किया-भंते ! पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में कथित अर्थों-गुणों से युक्त जो साधक दान्त है, भव्य है, शरीर के प्रति जिसने ममत्व का व्युत्सर्ग कर दिया है, उसे क्यों माहण, श्रमण भिक्षु या निग्रन्थ कहना चाहिए ? हे महामुने ! कृपया यह हमें बताइए।
विवेचन-माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ : स्वरूप और प्रतिप्रश्न-प्रस्तुत सूत्र में सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्यों के समक्ष पूर्वोक्त १५ अध्ययनों में कथित साधुगुणों से युक्त साधक को भगवान् द्वारा माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ कहे जाने का उल्लेख किया तो शिष्यों ने जिज्ञासावश प्रतिप्रश्न किया कि क्यों और किस अपेक्षा से उन्हें माहन आदि कहा जाए ?
इस प्रश्न के समाधानार्थ अगले सूत्रों में इन चारों का क्रमशः लक्षण बताया गया है ।
दान्त-जो साधक इन्द्रियों और मन का दमन करता है, उन्हें पापाचरण या सावद्यकार्य में प्रवृत्त होने से रोकता है, यहां तक कि अपनी इन्द्रियों और मन को इतना अभ्यस्त कर लेता है कि वे कुमार्ग में जाते ही नहीं।