Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-सोलहवां अध्ययन-गाहा
भिक्षु के अन्य चार विशिष्ट गुण यहां बताये गये हैं-(१) अनुन्नत, (२) नावनत, (३) विनीत या नामक और (४) वान्त । अनुग्नत आदि चारों गुण इसलिए आवश्यक हैं कि कोई साधक जब भिक्षा को अपना अधिकार या आजीविका का साधन बना लेता है, तब उसमें अभिमान आ जाता है, वह उद्धत होकर गृहस्थों (अनुयायियों) पर धौंस जमाने लगता है, भिक्षा न देने पर श्राप या अनिष्ट कर देने का भय दिखाता है, या भिक्षा देने के लिए दवाब डालता है अथवा दीनता-हीनता या करुणता दिखाकर भोजन लेता है, अथवा मिक्षा न मिलने पर अपनी नम्रता छोड़कर गाँव, नगर या उस गृहस्थ को कोसने या अपशब्दों से धिक्कारने लगता है, अथवा अपनी जिह्वा आदि पर संयम न रखकर सरस, स्वादिष्ट, पौष्टिक वस्तु की लालसावश सम्पन्न घरों में ताक-ताक कर जाता है, अंगारादि दोषों का सेवन कर अपनी जितेन्द्रियता को खो बैटता है। अतः भिक्ष का अनुन्नत, नावनत (अदीन), नामक (विनीत या नम्र) और दान्त होना परम आवश्यक है।
ये चार गुण भिक्षा-विधि में तो लक्षित होते ही हैं, इसके अतिरिक्त साधक के जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में इन गुणों की प्रतिच्छाया आनी चाहिए। क्योंकि जीवन में सर्वत्र सर्वदा ही ये गुण आवश्यक हैं।
इसी दृष्टि से आगे 'व्युत्सृष्टकाय', 'संख्यात', "स्थितात्मा' और 'उपस्थित' ये चार विशिष्ट भिक्षु के गुण बताये हैं । इन गुणों का क्रमशः रहस्य यह है कि (१) भिक्षु अपने शरीर पर ममत्व रखकर उसो को हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ बनाने में न लग जाए, किन्तु शरीर पर ममत्व न रखकर कल्पनीय, एषणीय, सात्त्विक यथाप्राप्त आहार से निर्वाह करे। (२) साधु अपने शरीर के स्वभाव का चिन्तन करे कि इसे जितना भी भरा जाता है, वह मल के रूप में निकल जाता है, अतः दोषयुक्त. पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं अत्यधिक आहार से पेट भरने की अपेक्षा एषणीय, कल्पनीय, सात्त्विक, अल्पतम आहार से भरकर काम क्यों न चला लू? मैं शरीर को लेकर पराधीन, परवश न बन । (३) स्थितात्मा होकर भिक्ष अपने आत्मभावों में, या मोक्षमार्ग में स्थिर रहे, आत्मगुण-चिन्तन में लीन रहे, खाने-पीने आदि पदार्थों को पाने और सेवन करने का चिन्तन न करे । (४) भिक्षु अपने सच्चारित्र पालन में उद्यत रहे, उसी का ध्यान रखे, चिन्तन करे, अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के चिन्तन में मन को प्रवृत्त न करे।
___ अन्तिम दो विशेषण भिक्षु की विशेषता सूचित करते हैं-(१) अध्यात्मयोग-शुद्धादान और (२) नाना परीषहोपसर्गसहिष्णु। कई भिक्षु भिक्षा न मिलने या मनोऽनुकल न मिलने पर आर्तध्यान या रौद्रध्यान करने लगते हैं, यह भिक्षु का पतन है, उसे धर्मध्यानादिरूप अध्यात्मयोग से अपने चारित्र को शुद्ध रखने, रत्नत्रयाराधना-प्रधान चिन्तन करने का प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही भिक्षाटन के या भिक्ष के विचरण के दौरान कोई परीषह या उपसर्ग आ पड़े तो उस समय मन में दैन्य या संयम से पलायन का विचार न लाकर उस परीषह या उपसर्ग को समभाव से सहन करना ही भिक्ष का गुण है।
वास्तव में, ये गुण भिक्षु में होंगे, तभी वह सच्चे अर्थ में भिक्ष कहलाएगा।