Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सुत्रकृतांग-पन्द्रहवां अध्ययन-जमतीत
६१८. सूअर आदि प्राणियों को प्रलोभन देकर फंसाने और मृत्यु के मुख में पहुंचाने वाले चावल के दाने के समान स्त्री-प्रसंग या क्षणिक विषय लोभ में साधक लीन (ग्रस्त) नहीं होता। जिसने विषय भोगरूप आश्रव-द्वारों को बन्द (नष्ट) कर दिया है, जो राग-द्व परूप मल से रहित-स्वच्छ है, सदा दान्त है, विषय-भोगों में प्रवृत्त या आसक्त न होने से अनाकुल (स्थिरचित्त) है, वही व्यक्ति अनुपम भावसन्धि-मोक्षभिमुखता को प्राप्त है।
६१६. अनीदश (जिसके सदृश दूसरा कोई उत्तम पदार्थ नहीं है उस) संयम या तीर्थंकरोक्त धर्म का जो मर्मज्ञ (खेदज्ञ) है, वह किसी भी प्राणी के साथ मन, वचन और काया से वैर-विरोध न करे (अर्थात् सबके साथ त्रिकरण-त्रियोग से मैत्रीभाव रखे), वही परमार्थतः चक्षुष्मान् (दिव्य तत्त्वदर्शी) है।
६२०. जो साधक भोगाकांक्षा (विषय-तृष्णा) का अन्त करने वाला या अन्त (पर्यन्त) वर्ती है, वही मनुष्यों का चक्षु (भव्य जीवों का नेत्र) सदृश (मार्गदर्शक या नेता) है। जैसे उस्तरा (या छुरा) अन्तिम भाग (सिरे) से कार्य करता है, रथ का चक्र भी अन्तिम भाग (किनारे) से चलता है, (इसी प्रकार विषय-कषायात्मक मोहनीय कर्म का अन्त ही संसार का अन्त करता है)।
६२१. विषय-सुखाकांक्षा रहित बुद्धि से सुशोभित (धीर) साधक अन्त-प्रान्त आहार का सेवन करते हैं। इसी कारण वे संसार का अन्त कर देते हैं। इस मनुष्यलोक में या यहाँ (आर्य क्षेत्र में) मनुष्य भव में दूसरे मनुष्य भी धर्म की आराधना करके संसार का अन्त करते हैं।
विवेचन-कर्मबन्धनविमुक्त, मोक्षाभिमुख एवं संसारान्तकर साधक कौन और कैसे ?-प्रस्तुत दस सूत्रमाथाओं में शास्त्रकार ने मुख्यतया चार तथ्य प्रस्तुत किये हैं -
(१) कर्मबन्धन से विमुक्त कौन होता है ? (२) मोक्षाभिमुख साधक कौन होता है ? (३) संसार का अन्तकर्ता साधक कौन होता है ? (४) ये तीनों किस-किस प्रकार की साधना से उस योग्य बनते हैं।
वस्तुतः ये तीनों परस्पर सम्बद्ध हैं। जो कर्मबन्धन से मुक्त होता है, वही मोक्षाभिमुख होता है, जो मोक्षाभिमुख होता है, वह संसार का अन्त अवश्य करता हैं।
कर्मबन्धन से मुक्त एवं मोक्षमिमुखी होने के लिए अनिवार्य शर्ते-मोक्षाभिमुखता के लिए साधक(१) अपने जीवन के प्रति निरपेक्ष होकर ही अष्टविधकर्मों का क्षय करने में उद्यत होता है। (२) विशिष्ट तप, संयम आदि के आचरण से मोक्ष के अभिमुख हो जाता है, (३) मोक्षमार्ग पर अधिकार कर लेता है, (४) वह संयमनिष्ठ हो जाता है, (५) पूजा, सत्कार, प्रतिष्ठा आदि में रुचि नहीं रखता, (६) विषयवासना से दूर रहता है, (७) संयम में पूरुषार्थ करता है, (८) इन्द्रिय और मन को वश में कर लेता है, (६) महाव्रत आदि की कृतप्रतिज्ञा पर दृढ़ रहता है, (१०) मैथुन-सेवन से विरत रहता है। (११) विषयभोगों के प्रलोभन में नहीं फँसता, (१२) कर्मों के आश्रवद्वार बन्द कर देता है, (१३) वह राग-द्वेषादि मल से रहित-स्वच्छ होता है, (१४) विषय-भोगों से विरक्त होकर अनाकुल स्थिरचित्त होता है, (१५) अनुपम संयम या अनुत्तर वीतराग-धर्म का मर्मज्ञ होने से वह मन-वचन-काया से किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोध नहीं करता। (१६) संसार का अन्त करने वाला साधक परमार्थदर्शी (दिव्यनेत्रवान)