Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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५१०. भूयाई समारंभ, समुद्दिस्स य जं कडं ।
सूत्रकृतांग – एकादेशे अध्ययन-मार्ग
तारिसं तु ण गेण्हेज्जा, अन्न पाणं सुसंजते ॥ १४ ॥
५११. पूतिकम्मं ण सेवेज्जा, एस धम्मे वुसीमतो । ifafa अभिकखेज्जा, सव्वसो तं ण कप्पते ॥ १५ ॥
५०६. वह साधु महान् प्राज्ञ, अत्यन्त धीर और अत्यन्त संवृत (आश्रवद्वारों का या इन्द्रिय विषयों का निरोध किया हुआ) है, जो दूसरे (गृहस्थ ) के द्वारा दिया हुआ एषणीय आहारादि पदार्थ ग्रहण करता है, तथा जो अनेषणीय आहारादि को वर्जित करता हुआ सदा ( गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं ग्रासैषणारूप त्रिविध) एषणाओं से सम्यक् प्रकार से युक्त रहता है ।
५१०. जो आहार पानी प्राणियों (भूतों) का समारम्भ ( उपमर्दन) करके साधुओं को देने के उद्देश्य से बनाया गया है, वैसे ( दोषयुक्त) आहार और पानी को सुसंयमी साधु ग्रहण न करे ।
५११. पूतिकर्मयुक्त (शुद्ध आहार में आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार के एक कण से भी मिश्रित ) आहार का सेवन साधु न करे । तथा शुद्ध आहार में भी यदि अशुद्धि की शंका हो जाए तो वह आहार भी साधु के लिए सर्वथा ग्रहण करने योग्य (कल्पनीय) नहीं है । शुद्ध संयमी साधु का यही धर्म है ।
विवेचन- एषणासमिति-मार्ग-विवेक- प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं में विशुद्ध आहारादि ग्रहण करने का मार्ग बताया गया है ।
एषणासमिति से शुद्ध आहार क्यों और कैसे ? - साधु की आवश्यकताएँ बहुत सीमित होती है, थोड़ासा आहार पानी और कुछ वस्त्र पात्रादि उपकरण । भगवान महावीर कहते हैं कि इस थोड़ी-सी आवश्यकता की पूर्ति वह अपने अहिंसादि महाव्रतों को सुरक्षित रखते हुए एषणासमिति का पालन करते हुए, निर्दोष भिक्षावृत्ति से करे । यदि एषणासमिति की उपेक्षा करके प्राणि समारम्भ करके साधु के उद्देश्य से निर्मित या अन्य आधाकर्म आदि त्रिविध एषणा दोषों से युक्त, अकल्पनीय - अनेषणीय आहारपानी साधु ग्रहण करेगा तो उसका अहिंसाव्रत दूषित हो जाएगा, बारबार गृहस्थ वर्ग भक्तिवश वैसा आहार -पानी देने लगेगा, इससे आरम्भजनित हिंसा का दोष लगेगा, गलत परम्परा भी पड़ेगी । यदि छल-प्रपंच करके आहारादि पदार्थ प्राप्त करेगा तो सत्यव्रत को क्षति पहुंचेगी, यदि किसी से जबर्दस्ती या दवाब से छीनकर या बिना दिये ही कोई आहारादि पदार्थ ले लिया तो अचौर्य - महाव्रत भंग हो जाएगा, और स्वाद लोलुपतावश लालसापूर्वक अतिमात्रा में आहारपानी संग्रह कर लिया तो ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह महाव्रत को भी क्षति पहुंचेगी । इसीलिए शास्त्रकार एषणासमिति से शुद्ध आहार ग्रहण करने पर जोर देते हैं । "
छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा गया है - " आहार शुद्ध होने पर अन्तःकरण (मन, बुद्धि, हृदय) शुद्ध होंगे, अन्तःकरण शुद्धि होने पर स्मृति निश्चल और प्रखर रहेगी, आत्मस्मृति की स्थिरता उपलब्ध
३ सूत्रकृतांग शीलांक पत्रांक २०१ का सारांश