Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
सूत्रकृतांग- बारहवाँ अध्ययन - समवसरण अज्ञानवाद स्वरूप और प्रकार - शास्त्रकार ने अज्ञानवाद की सर्वप्रथम समीक्षा इसलिए की है कि उसमें ज्ञान के अस्तित्व से इन्कार करके समस्त पदार्थों का अपलाप किया जाता है, अतः यह अत्यन्त विपरीतभाषी है । अज्ञानवादी वे हैं, जो अज्ञान को ही कल्याणकारी मानते हैं ।
४०२
अज्ञानवादियों के ६७ भेद इस प्रकार हैं- जीवादि तत्त्वों को क्रमशः लिखकर उनके नीचे ये ७ भंग रखने चाहिए - (१) सत्. (२) असत, (३) सदसत्, (४) अवक्तव्य, (५) सदवक्तव्य, (६) असत्वक्तव्य, और (७) सद्-असद्-अवक्तव्य । जैसे- जीव सत् है, यह कौन जानता है ? और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? इसी प्रकार क्रमशः असत् आदि शेष छहों भंग समझ लेने चाहिए। जीवादि तत्त्वों में प्रत्येक के साथ सात भंग होने से कुल ६३ भंग हुए। फिर ४ भंग ये और मिलाने से ६३ + ४ =६७ भेद हुए । चार भंग ये हैं- (१) सत् (विद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति होती है, यह कौन जानता है, और यह जानने से भी क्या लाभ? इसी प्रकार असंत् ( अविद्यमान ), सदसती ( कुछ विद्यमान और कुछ अविद्य मान), और अवक्तव्यभाव के साथ भी इसी तरह का वाक्य जोड़ने से ४ विकल्प होते हैं ।
अज्ञानवादी कुशल या अकुशल -- अज्ञानवादी अपने आपको कुशल (चतुर) मानते हैं । वे कहते हैं कि हम सब तरह से कुशल-मंगल हैं, क्योंकि हम व्यर्थ ही किसी से न तो बोलते हैं, न ज्ञान बघारते हैं, चुपचाप अपने आप में मस्त रहते हैं । ज्ञानवादी अपने-अपने अहंकार में डूबे हैं, परस्पर लड़ते हैं, एकदूसरे पर आक्षेप करते हैं, वे वाक्कलह से असंतुष्ट और क्षेम कुशल रहित रहते हैं ।
इसका निराकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं- " अष्णाणिवा ता कुसला वि संता ........'' इसका आशय यह है कि अज्ञानवादी अपने आपको कुशल मानते हैं, किन्तु अज्ञान के कारण कोई जीव कुशलमंगल नहीं होता । अज्ञान के कारण ही तो जीव नाना दुःखों से पीड़ित है; बुरे कर्म करके वह दुर्गति और नीच योनि में जाता है। नरक में कौन-से ज्ञानी हैं ? अज्ञानी ही तो हैं । फिर वे परस्पर लड़तेझगड़ते क्यों हैं ? क्यों इतना दुःख पाते हैं ? उन्हें कुशल क्षेम क्यों नहीं है ? और तियंचयोनि के जीव भी तो अज्ञानी हैं । वे अज्ञानवश हो तो पराधीन हैं। परवशता एवं अज्ञान के कारण ही उन्हें भूखप्यास शर्दी-गर्मी आदि के दुख उठाने पड़ते हैं । अज्ञान में डूबे हैं, तभी तो वे किसी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकते । अज्ञानी मानव बहुत पिछड़े, अन्धविश्वासी, तथा सामाजिक, धार्मिक या अध्यात्मिक क्षेत्र में अप्रगतिशील रहते हैं, अनेक प्रकार के दुख उठाते हैं । इसलिए अज्ञानवादियों के जीवन में कुशल-क्षेम नहीं है, पशु से भी गया बीता जीवन होता है अज्ञानी का ।
अज्ञानवादी असम्बद्धभाषी एवं संशयग्रस्त - अज्ञानवादी अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन ज्ञान से करते हैं। लेकिन ज्ञान को कोसते हैं । ज्ञान के बिना पदार्थों का यथार्थ स्वरूप कैसे समझा जा सकता है ? इसलिए वे महाम्रान्ति के शिकार एवं असम्बद्धभाषी हैं ।
अज्ञान का पर्युदास नत्र समास के अनुसार अर्थ किया जाए तो होता है एक ज्ञान से भित्र, ज्ञान के सदृश दूसरा ज्ञान । इससे तो दूसरे ज्ञान को ही कल्याण साधन मानलिया, अज्ञानवाद कहाँ सिद्ध हुआ ? प्रसज्य न समास के अनुसार अज्ञान का अर्थ होता है - ज्ञान का निषेध या अभाव । यह प्रत्यक्ष से विरुद्ध है; क्योंकि सम्यग्ज्ञान द्वारा पदार्थ का स्वरूप जान कर प्रवृत्ति करने वाला कार्यार्थी पुरुष अपने कार्य को सिद्ध करता हुआ प्रत्यक्ष देखा जाता है। इसलिए ज्ञान का अभाव कितना असत्य