Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 472
________________ गाचा ५७४ से ५७८ . . ४२३ से ग्रस्त एवं जाति, बुद्धि और लाभ आदि के मद से लिप्त होकर दूसरों का तिरस्कार करता है, दूसरों की निन्दा करता है, उन्हें झिड़कता है, तो उसके ये गुण अतथ्य हो जाते हैं, वह साधक समाधिभ्राष्ट हो जाता है। सामान्य साधु : तथ्य का प्रवेश- (१) जो भिक्षु प्रज्ञा, तप, गोत्र एवं आजीविका का मद मन से निकाल देता है, वही उच्च कोटि का महात्मा और पण्डित है, (२) जो धीर पुरुष सभी मदों को संसार का कारण समझकर उन्हें आत्मा से पृथक् कर देते हैं, जरा भी मद का सेवन नहीं करते, वे सब प्रकार के गोत्रों से रहित उच्चकोटि के महर्षि हैं, वे गोत्रादिरहित सर्वोच्च मोक्ष गति को प्राप्त होते हैं, (३) जो भिक्षु ग्राम या नगर में भिक्षार्थ प्रवेश करते ही सर्वप्रथम एषणा-अनेषणा का भली-भाँति विचार करता है, तदनन्तर आहार-पानी में आसक्त न होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करता है, वह प्रशस्त लेश्या सम्पन्न एवं धर्मविज्ञ साधु है । ये तीनों सामान्य साधु भी याथातथ्य प्रवेश होने के कारण उच्चकोटि के बन जाते हैं। सुसाधुद्वारा यथातथ्य धर्मोपदेश के प्रेरणासूत्र ५७४ अरति रति च अभिभूय भिक्खू, बहूजणे वा तह एगचारी। एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गतिरागती य ॥१८॥ ५७५ सयं समेच्चा अदुवा वि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हितवं पयाणं। ... जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥१६॥ ५७६ केसिंचि तक्काइ अबुज्झभावं खुड्डं पि गच्छेज्ज असद्दहाणे। ____ आयुस्स कालातियारं वघातं, लद्धाणुमाणे य परेसु अढे ॥२०॥ ५७७ कम्मं च छंदं च विगिच धीरे, विणएज्ज उ सव्वतो आयभावं । स्वेहि लुप्पंति भयावहेहि, विज्ज गहाय तसथावरेहिं ॥२१॥ ५७८ न पूयणं चेव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सवि णो कहेज्जा। सव्वे अणठे परिवज्जयंते, अणाउले या अकसाइ भिक्खू ॥२२॥ ५७४. साधु संयम में अरति (अरुचि) और असंयम में रति (रुचि) को त्याग कर बहुत से साधुजनों के साथ रहता हो या अकेला रहता हो, जो बात मौन (मुनि धर्म या संयम) से सर्वथा अविरुद्ध ४ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २३५, २३६ (ख) सूयगडंग (मू० पा० टिप्पण) सू० गा० ५६८ से ५७० तक पृ० १०३ .५ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २३७, २३८ (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) सू० गा० ५७१ से ५७३ तक पृ० १०३-१०४

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