Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रस्तुत अध्ययन में शास्त्रकार ने श्रमण को चारित्रसमाधि के लिए किसी प्रकार का संचय न करना, समस्त प्राणियों के साथ आत्मवत् व्यवहार करना, आरम्भादि प्रवृत्तियों में हाथ-पैर आदि को संयत रखना, निदान न करना, हिंसा, चौर्य, अब्रह्मचर्य आदि पापों से दूर रहना, अप्रतिबद्ध विचरण, आत्मवत् प्रेक्षण, एकत्वभावना, क्रोधादि से विरति सत्यरति कामना रहित तपश्चरण, तितिक्षा, वाग्गुप्ति, शुद्धलेश्या, स्त्री संसर्गनिवृत्ति, धर्मरक्षा के विचारपूर्वक पापविरति निरपेक्षता, कायव्युत्सर्ग, जीवन-मरणाकांक्षा रहित होना आदि समाधि प्राप्ति के उपायों का तथा समाधि भंग करने वाला स्त्रीसंसर्ग, परिग्रह-ममत्व, भोगाकांक्षा आदि प्रवृत्तियों से दूर रहने का निर्देश किया है। तथा ज्ञान-समाधि एवं दर्शनसमाधि के लिए शंका, कांक्षा आदि से तथा एकान्त क्रियावाद एवं एकान्त अक्रियावाद से भी दूर रहना आवश्यक बताया है ।"
प्राथमिक
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इस अध्ययन का उद्देश्य साधक को सभी प्रकार की असमाधियों तथा असमाधि उत्पन्न करने वाले कारणों से दूर रखकर चारों प्रकार की भाव समाधि में प्रवृत्त करना है ।
चारों प्रकार की भावसमाधि की फलश्रुति वृत्तिकार के शब्दों में- ( १ ) दर्शन - समाधि में स्थित साधक का अन्तःकरण जिन-प्रवचन में रंगा होने से वह कुबुद्धि या कुदर्शन - रूपी अन्धड़ से विचलित नहीं होता, (२) ज्ञान-समाधि द्वारा साधक ज्यों-ज्यों नवीन नवीन शास्त्रों का अध्ययन करता है, त्यों-त्यों अतीव रसप्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति की श्रद्धा में वृद्धि एवं आत्म - प्रसन्नता होती है । (३) चारित्र समाधि में स्थित मुनि विषयसुख निःस्पृह, निष्किचन एवं निरपेक्ष होने से परम शान्ति पाता है । ( ४ ) तपः समाधि में स्थित मुनि उत्कट तप करता हुआ भी घबराता नहीं, न ही क्षुधा तृषा आदि परीषहों से उद्विग्न होता है, तथा ध्यानादि आभ्यन्तर तप में लीन साधक मुक्ति का-सा आनन्द (आत्मसुख ) प्राप्त कर लेता है, फिर वह सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से पीड़ित नहीं होता ।
प्रस्तुत अध्ययन उद्देशक रहित है और इसमें कुल २४ गाथाएँ हैं ।
यह अध्ययन सूत्रगाथा ४७३ से प्रारम्भ होकर ४६६ में पूर्ण होता है ।
४ (क) सूयगडंगसुत (मूलपाठ टिप्पण) पृ० ८५ से ८ तक का सारांश (ख) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा० १ पृ० १५०
५ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १८७