Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-दशम अध्ययन-समाधि पदार्थों एवं विषयभोगों आदि की उपभोग क्रिया को समाधि (सुख) कारक मानते हैं, उक्त पदार्थों के ज्ञान को नहीं । एकान्त अक्रियावादी आत्मा को अकर्ता मानकर तत्काल जन्मे हुए बालक के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके उसमें आनन्द (समाधिमानते हैं। किन्तु वस्तुतः दूसरों को पीड़ा देने वाली पापक्रिया आत्मा को अक्रिय मानने-कहो मात्र से टल नहीं जाती, प्राणियों के साथ वैरवर्द्धक उस पाप का फल भोगना ही पड़ता है। (४) चारित्र-समाधि से दूर-अपने आपको आयुष्य क्षय रहित अमर मानकर रात-दिन धन, सांसारिक पदार्थ, स्त्री-पुत्र आदि पर ममत्व करके उन्हीं की प्राप्ति, रक्षा, वृद्धि आदि की चिन्ता में मग्न रहते हैं, ऐसे लोग समाधि (सुख-शान्ति) के मूलभूत कारण (त्याग, वैराग्य, संयम, तप, नियम आदि रूप चारित्र) से दूर रहते हैं। मरने पर उनके द्वारा पाप से उपार्जित धनादि पदार्थों को दूसरे ही लोग हड़प जाते हैं, न तो इहलोक में उन्हें समाधि प्राप्त होती है, न ही परलोक में वे समाधि पाते हैं।
पाठान्तर और व्याख्या-धुतमादिसंति' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'धुतमादियंति' - व्याख्या है-'धुत' अर्थात् वैराग्य की प्रशंसा करते हैं । 'जायस्स बालस्स पकुव्व देह' के बदले यहाँ युक्ति एवं प्रसंग
पाठान्तर है-'जायाए बालस्स पगब्भणाए' व्याख्या की गई है-हिसादि पापकर्मों में प्रवृत्त अनुकम्पा रहित अज्ञ (बाल) व्यक्ति की जो (हिंसावाद में) प्रगल्भता-धृष्टता उत्पन्न हुई, उससे उसका प्राणियों के साथ वैर ही बढ़ता है। 'साहसकारी' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'सहस्सकारी', व्याख्या दो प्रकार से की गई है-(१) स-हर्ष हिंसादि पाप करता है, (२) सहस्रों (हजारों) पापों को करता है। 'जहाहि वित्त" के बदले पाठान्तर है-'जधा हि (य)', व्याख्या दो प्रकार से है-(१) 'वित्तं' आदि पदार्थों का त्याग करके, (२) जैसे कि धन आदि पदार्थ ।। समाधि प्राप्ति के लिए प्रेरणासूत्र
४६२. सीहं जहा खुद्दमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा।
एवं तु मेधावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥ २० ॥ ४६३. संबुज्झमाणे तु गरे मतीमं, पावातो अप्पाण निवट्टएज्जा।
हिंसप्पसूताई दुहाई मंता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ २१ ॥ ४६४. मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, णिव्याणमेयं कसिणं समाहि ।
सयं न कुज्जा न वि कारवेज्जा, करतमन्नपि य नाणुजाणे ॥ २२ ॥
३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र १६३ का सार ४ (क) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० ८७-८८
(ख) सूत्रकृतांग शी• वृत्ति पत्रांक १६३