Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-दशम अध्ययन-समाधि किसी की भलाई-बुराई के प्रपंच में न पड़े, (१५) प्रव्रजित साधु दीन, विषण्ण, पतित और प्रशंसा एवं आदर-सत्कार का अभिलाषी न बने, (१६) आधाकर्मादि दोष दूषित आहार की लालसा न करे, न ही वैसे आहार के लिए घूमे, अन्यथा वह विषण्ण भाव को प्राप्त हो जाएगा। (१७) स्त्रियों से सम्बन्धित विविध विषयों में आसक्त होकर स्त्री प्राप्ति के लिए धनादि संग्रह करता है, वह पाप कर्म का सचय करके असमाधि पाता है । (१८) जो प्राणियों के साथ वैर बांधता है, वह उस पापकर्म के फलस्वरूप यहाँ से मरकर नरकादि दुःख स्थानों में जन्म लेता है, इसलिए मेधावी मुनि को समाधि-धर्म का सम्यक् विचार करके इन सब पापों या ग्रन्थों से मुक्त होकर संयमाचरण करना चाहिए। (१६) चिरकाल तक जीने की इच्छा से धन या कर्म की आय न करे, अपितु धन, धाम, स्त्री-पुत्र आदि में अनासक्त रह कर संयम में पराक्रम करे। (२०) कोई बात कहे तो सोच-विचार कर कहे, (२१) शब्दादि विषयों से आसक्ति हटा ले, (२२) हिंसात्मक उपदेश न करे, (२३) आधाकर्मी आदि दोषयुक्त आहार की न तो कामना करे और न ही ऐसे दोषयुक्त आहार से संसर्ग रखे, (२४) कर्मक्षय के लिए शरीर को कृश करे, शरीर स्वभाव की अनूप्रक्षा करता हआ शरीर के प्रति निरपेक्ष एवं निश्चिन्त हो जाए। (२५) एकत्व भावना ही संगमोक्ष का कारण है, यही भाव समाधि का प्रधान कारण है, (२६) भाव समाधि के लिए साधु क्रोध से विरत, सत्य में रत एवं तपश्चर्या परायण रहे । (२७) जो साधु स्त्री सम्बन्धी मैथुन से विरत रहता है, परिग्रह नहीं करता और विविध विषयों से स्व-पर की रक्षा करता है, निःसंदेह वह समाधि प्राप्त है। (२८) जो साधू अरति और रति पर विजयी बनकर तण स्पर्श, शीतोष्ण स्पर्श, दंशमशक स्पर्श, सुगन्धदुर्गन्ध प्राप्ति आदि परीषहों को समभाव से सहन कर लेता है, वह भी समाधि प्राप्त है। (२६) जो साधु वचनगुप्ति से युक्त हो, शुद्ध लेश्या से युक्त होकर संयम में पराक्रम करता है, न तो घर बनाता है, न बनवाता है और गृहस्थी के विशेषतः स्त्री सम्बन्धी गृहकार्यों से सम्पर्क नहीं रखता, वह भी समाधि प्राप्त है।' निःसंदेह समाधिकामी साध के लिए ये मूल मन्त्र बड़े उपयोगी हैं।
पाठान्तर और व्याख्या-'परिपच्चमाणे के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है- 'परितप्पमाणे- व्याख्या है-परितप्त होते हए प्राणियों को। 'ठितप्पा' के बदले चणिसम्मत पाठान्तर है-'ठितच्चा'-- व्याख्या है-स्थिर अर्चा-लेश्या-मनोवृत्ति वाला। 'णिकाममीणे' के बदले चणिसम्मत पाठान्तर है-'णियायमीणेव्याख्या है-"णियायणा' का अर्थ है-निमन्त्रण ग्रहण करता है, वह 'णियायमीणे' | 'निकामसारी' के बदले पाठान्तर है-'निकामचारी', व्याख्या है-आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का निकाम-अत्यधिक सेवन करता है या स्मरण करता है। 'जीवितही'-दो व्याख्याएँ-(१) इस लोक में जीवित यानी काम-भोग, यशकीर्ति इत्यादि चाहने वाला, (२) इस संसार में असंयमी जीवन जीने का अभिलाषी । चेच्चाण सोयं-(१) शोक....चिन्ता छोड़कर अथवा (२) श्रोत-गृह-स्त्री-पुत्र-धनादि रूप प्रवाह को छोड़कर । 'इत्थीसु'-देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी तीनों प्रकार की स्त्रियों में। "णिस्संसयं-(१) निःसंशय-निःसन्देह अथवा (२) निःसंश्रय-विषयों का संश्रय-संसर्ग न करने वाला साध । २
.१ सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक १८७ से १६२ तक का सारांश
२ (क) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक १८७ से १९२ .... (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० ८५ से ८७ तक