Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग - नवम अध्ययन - - धर्म
कुशीलों की संगति से सुखभोगेच्छारूप उपसर्ग - कुशील व्यक्ति अपनी संगति में आने वाले सुविहित साधक को बहकाते हैं- "अजी ! आप शरीर को साफ और सशक्त रखिये । शरीर सुदृढ़ होगा तभी आप धर्मपालन कर सकेंगे। शरीर साफ रखने से मन भी साफ रहेगा । शरीर को बलवान् बनाने हेतु आधाकर्मी, औद्द शिक पौष्टिक आहार मिलता हो तो लेने में क्या आपत्ति है ? पैरों की रक्षा के लिए जूते पहन लेने या वर्षा गर्मी से सुरक्षा के लिए छाता लगा लेने में कौन-सा पाप है ? शरीररक्षा करना तो पहला धर्म है । अतः निरर्थक कष्टों से बचाकर धर्माधाररूप शरीर की रक्षा करनी चाहिए ।"
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कभी-कभी वे आकर्षक युक्तियों से सुसाधक को प्रभावित कर देते हैं- " आजकल तो पंचम काल है, ही संहनन है, इतनी कठोर क्रिया करने और इतने कठोर परीषहों और उपसर्गों को सहने की शक्ति कहाँ है ? अतः समयानुसार अपनी आचारसंहिता बना लेनी चाहिए आदि आदि । "
अल्प पराक्रमी साधक कुशीलों के आकर्षक वचनों से प्रभावित हो, धीरे-धीरे उनके समान ही सुकुमार सुखशील बन जाते हैं । इसीलिए इन उपसर्गों को सुखरूप कहा है । ये उपसर्ग पहले तो बहुत सुखद, सुहावने और मोहक लगते हैं, परन्तु बाद में ये संयम की जड़ों को खोखली कर देते हैं । साधु को ये उपसर्ग पराश्रित, इन्द्रियविषयों का दास और असंयमनिष्ठ बना देते हैं । १३
अकारण गृहस्थ के घर में बैठने से हानि-अकारण गृहस्थ के घर पर बैठने से किसी को साधु के चारित्र शंका हो सकती है, किसी अन्य सम्प्रदाय का साधुद्वषो व्यक्ति साधु पर मिथ्या दोषारोपण भी कर सकता है । दशवैकालिक सूत्र में तीन कारणों से गृहस्थ के घर पर बैठना कल्पनीय बताया - ( १ ) वृद्धावस्था के कारण अशक्त हो, (२) कोई रोग ग्रस्त हो या अचानक कोई चक्कर आदि रोग खड़ा हो जाए (३) या दीर्घतपस्वी हो । १४
मर्यादातिक्रान्त हास्य कर्मबन्ध का कारण - कभी-कभी हंसी-मजाक या हंसना कलह का कारण बन ता है । इसीलिए आगम में हास्य और कुतूहल को कर्मों के बन्ध का कारण बताया है । उत्तराध्ययन एवं भगवती सूत्र में भी हास्य और क्रीड़ा को साधु के लिए वर्जित तथा कर्म बन्धकारक बताया है । १५
“लद्धळे कामे ण पत्थेज्जा”- इस पंक्ति के दो अर्थ फलित होते हैं - (१) दीर्घकालीन साधना के फलस्वरूप उपलब्ध काम-भोगों - सुख-साधनों का प्रयोग या उपयोग करने की अभिलाषा न करे, (२)
१३ सूत्रकृतांग शी० वृत्ति प० १८३
१४ (क) सूत्र कृतांग शी० वृत्ति पत्रांक १८३
(ख) दशवैकालिक उ० ६ गा० ५७ से ६० तक
१५ (क) सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक १८३
(ख) हासं कीडं च वज्जए' - उत्तरा अ० १ । गा० ६
( ग ) 'जीवेणं भंते ! हसमाणे वा उस्सूयुमाणे वा कइ कम्मपगडीयो बंधइ ? 'गोमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा "
- भगवती शतक ५ । सूत्र ७१ ( अंग सुत्ताणि)