Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रऋतांग-अष्टम अध्ययन-बीर्य धम्ममकोवियं = इसके दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं-(१) सभी कुतीर्थिक धर्मों द्वारा अकोपित-अदूषित
) सभी धर्मों-अनुष्ठानरूप स्वभावों से जो अगोपित-प्रकट है। सिक्खं सिक्खेज्ज=शिक्षा से यथावत् मरणविधि जानकर आसेवनशिक्षा से उसका अभ्यास करे।'
पाठान्तर और व्याख्या-'अणुमाणं....."पंडिए' (गा० ४२८) के बदले पाठान्तर है-'अइमाणं च....... परिणाय पण्डिए', अर्थ होता है-अतिमान और अतिमाया; ये दोनों दुःखावह होते हैं, यह जानकर पण्डितसाधक इनका परित्याग करे। आशय यह है-सरागावस्था में कदाचित् मान या माया का उदय हो जाए, तो भी उस उदयप्राप्त मान या माया का विफलीकरण कर दे। इसी.पंक्ति के स्थान में दो पाठान्तर मिलते हैं-(१) 'सुयं मे इहमेगेसि एयं वीरस्स वीरियं' तथा (२) 'आयत8 सुमादाय एवं वीरस्स वीरियं'। प्रथम पाठान्तर का भावार्थ-जिस बल से संग्राम में शत्रुसेना पर विजय प्राप्त की जाती है, वह परमार्थ रूप से वीर्य नहीं है, अपितु जिस बल से काम-क्रोधादि आन्तरिक रिपुओं पर विजय प्राप्त की जाती है, वही वास्तव में वीर-महापुरुष का वीर्य हैं, यह वचन मैंने इस मनुष्यजन्म में या संसार में तीर्थंकरों से सूना है। द्वितीय पाठान्तर का भावार्थ-आयत यानी मोक्ष । आयतार्थ =मोक्षरूप अर्थ या मोक्ष रूप प्रयोजन साधक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मार्ग। उसको सम्यक प्रकार से ग्रहण करके जो धतिबल से काम-क्रोधादि पर विजय पाने के लिए पराक्रम करता है, यही वीर का वीर्य हैं। ११ अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम ही बालवीर्य और पण्डितवीर्य
४३२. जे याऽबुद्धा महाभागा वोरा असम्मत्तदंसिणो।
असुद्धतेसि परक्कंतं, सफलं होइ सव्वसो ॥२२॥ ४३३ जे य बुद्धा महाभागा, वोरा सम्मत्तदंसिणो।
सुद्धतेसि परक्कंतं, अफलं होति सव्वसो ॥२३॥ ४३४. तेसि पि तवोऽसुद्धो, निक्खंता जे महाकुला।
जं नेवऽन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेदए ॥२४॥
६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७०-१७१ (ख) सिद्धान्त सूत्र-“कि सक्का बोत्तु जे सरागधम्ममि कोइ अकसायी।
संते वि जो कसाए निगिण्हइ, सोऽवि ततुल्लो ॥" -सू. क. वृत्ति प० १७० में उधत १० (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७२।।
(ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० १७६ ११ गाथा संख्या १८ से आगे १६ वीं गाथा चूणि में अधिक है, वह इस प्रकार है....
"उड्ढमधे तिरिय दिसासु जे पाणा तस-थावरा ।
सव्वत्थ विरतिं कुज्जा, संतिनिव्वाणमाहितं ॥" यह गाथा इसी सूत्र के तृतीय अध्ययन (सू० २४४) में तथा ११ वें अध्ययन (सू०५०७) में मिलती है।