Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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गाथा ४३५ से ४३६
३५५
४३६. साधु ध्यानयोग को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके पूर्ण रूप से काया का व्युत्सर्ग करे (अनिष्ट प्रवृत्तियों से शरीर को रोके)। परीषहोपसर्ग सहनरूप तितिक्षा को प्रधान (सर्वोत्कृष्ट) साधना समझकर मोक्ष पर्यन्त संयम-पालन में पराक्रम करे।
-यह मैं कहता हूँ। विवेचन-पण्डितवीर्य-साधना का आदर्श-अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने सूत्रगाथाद्वय द्वारा पण्डितवीर्य की साधना का आदर्श प्रस्तुत किया हैं।
__ साधक के पास मन, वचन और काया, ये तीन बड़े साधन हैं, इन तीनों में बहुत बड़ी शक्ति है। परन्त अगर वह मन की शक्ति को विषयोपभोगों की प्राप्ति के चिन्तन, कषाय या राग-द्वेष-मोह आदि में या दुःसंकल्प, दुर्ध्यान आदि करने में लगा देता है तो वह आत्मा के उत्थान की ओर गति करने के बजाय पतन की ओर गति करता है। इसी प्रकार वचन की शक्ति को कर्कश, कठोर, हिंसाजनक, पीड़ाकारी, सावद्य, निरर्थक, असत्य या कपटमय वाणी बोलने में लगाता है, वाणी का समीचीन उपयोग नहीं करता है तो भी वह अपनी शक्ति बालवीर्य साधना में लगाता है, काया को भी केवल खाने-पीने, पुष्ट बनाने, सजाने संवारने, या आहार-पानी, वस्त्र, मकान आदि पदार्थों के अधिकाधिक उपभोग में लगाता है, तो भी वह अपनी शक्ति का अपव्यय करता है। इसलिए शास्त्रकार पण्डितवीर्य साधक के समक्ष उसके त्याग-तप-प्रधान जीवन के अनुरूप एक आदर्श की झांकी प्रस्तुत करते हैं। एक आचार्य भी इसी आदर्श का समर्थन करते हैं-"जो साधक थोड़ा आहार करता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी निद्रा लेता है, अपने संयम के उपकरण और साधन बहुत ही कम रखता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं।" एक ओर साधक को धर्मपालन के लिए शरीर को स्वस्थ एवं सक्षम रखना है, दूसरी ओर संयम, तप और त्याग का भी अधिकाधिक अभ्यास करना है, इस दृष्टि से निम्नोक्त तथ्य गाथाद्वय में से प्रतिफलित होते हैं
(१) साधक अल्पतम आहार, अल्प पानी, अल्प निद्रा, अल्प भाषण; अल्प उपकरण एवं साधन से जीवननिर्वाह करे; वह द्रव्य-भाव से उनोदरी तप का अभ्यास करे।
(२) शरीर से चलने फिरने, उठने-बैठने, सोने-जागने, खाने-पीने आदि की जो भी प्रवृत्ति करनी हैं, वह भी निरर्थक न की जाए, जो भी प्रवृत्ति की जाए, वह दशवैकालिक सूत्र के निर्देशानुसार सदैव यतनापूर्वक ही की जाए।१५
१७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्राक १७४-१७५ के आधार पर
(ख) 'थोवाहारो थोवभणिओ अ जो होइ थोवनिय।
____ थोवोवहि-उवकरणो तस्स हु देवा वि पणमंति ॥'-सू० कृ० शी० वृत्ति में उद्धृत पत्रांक १७५ १८ सदा जते (जए)-तुलना करें(क) जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए ।
जयं भुजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ ।।-दशवका० अ० ४/८ (ख) यतं चरे यतं तिठे, यतं अच्छे यतं सये । यतं समिञ्जए भिक्ख यतमेनं पसारए ॥
-सुत्तपिटक खुद्दकनिकाय इतिवृत्तक पृ० २६२ (ग) सूयगडंग चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० ३६६