Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य लौविक कामना, एवं कीति आदि की लालसा से तपश्चरण का निषेध है, सिर्फ निर्जरार्थ (कर्मक्षयार्थ) तप का विधान है।"
___अबुधा-इसकी दो व्याख्याएँ वृत्तिकार ने की हैं-(१) जो व्यवित अबुद्ध है अर्थात्-धर्म के परमार्थ से अनभिज्ञ हैं, वे व्याकरणशास्त्र, शुष्कतर्क आदि के ज्ञान से बड़े अहंकारी बनकर अपने आपको पण्डित मानते हैं, किन्तु उन्हें यथार्थ वस्तुतत्त्व का बोध न होने के कारण अबुद्ध हैं । (२) अथवा बालवीर्यवान् व्यक्तियों को अबुद्ध कहते हैं ।१५
बालजनों का परात्रम- अनेक शास्त्रों के पण्डित एवं त्यागादि गुणों के कारण लोकपूज्य एवं वाणीवीर होते हुए सम्यक्तत्त्वज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि बालजन ही हैं। उनके द्वारा तप, दान, अध्ययन आदि में किया गया कोई भी पराक्रम आत्मशुद्धिकारक नहीं होता, प्रत्युत कर्मबन्धकारक होने से आत्मा को अशुद्ध बना देता है । जैसे कुवैद्य की चिकित्सा से रोगनाश न होकर उलटे रोग में वृद्धि होती है, वैसे ही उन अज्ञानी मिथ्यादृष्टिजनों की तप आदि समस्त कियाएँ भव-भ्रमणरोग के नाश के बदले भवभ्रमण में वृद्धि करती हैं । ६ पण्डितवीर्य-साधना का आदर्श
४३५. अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वते ।
खंतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीतगेही सदा जते ॥२५॥ ४३६. प्राणजोगं समाहट , कायं विउसेज्ज सव्वसो। तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्व एज्जासि ॥२६॥ त्ति बेमि ।
॥ वीरियं : अट्ठम अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४३५. सुव्रत (महाव्रती) साधु उदरनिर्वाह के लिए थोड़ा-सा आहार करे, तदनुसार थोड़ा जल पीए; इसी प्रकार थोड़ा बोले। वह सदा क्षमाशील, (या कष्टसहिष्णु), लोभादि से रहित, शान्त, दान्त, (जितेन्द्रिय) एवं विषय भोगों में अनासक्त रहकर सदैव सर्व प्रवृत्तियों में यतना करे अथवा संयम पालन में प्रयत्न (पुरुषार्थ) करे।
१४ तुलना कीजिए-'नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्ति-वन्न-सद्द
सिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा; नन्नत्थ निज्जरठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा। -दशवकालिक सूत्र अ०६ उ०४ सू०४ १५ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७४ (ख) शास्त्रावगाह-परिघट्टन तत्परोऽपि ।
नवाऽबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् ॥ १६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७४ (ख) सम्यग्दृष्टि का समस्त अनुष्ठान संयम-तपःप्रधान होता है, उनका संयम अनाश्रव (संवर) रूप और तप
निर्जरा फलदायक होता है। कहा भी है-'संजमे अणण्यफले तवे वोदाणफले।'