Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य - भाववीर्य के अन्तर्गत आने वाले उपर्युक्त सभी वीर्य तीन कोटि के होते हैं-पण्डितवीर्य, बाल
पण्डितवीर्य और बालवीर्य । पण्डितवीर्य संयम में पराक्रमी निर्मल साधूतासम्पन्न सर्वविदित साधुओं का होता हैं, बालपण्डितवीर्य व्रतधारी संयमासंयमी देशविरतिश्रावक का होता है, और बालवीर्य असंयमपरायण हिंसा आदि से अविरत या व्रतभंग करने वाले का होता है।' शास्त्रकार ने अकर्मवीर्य और सकर्मवीर्य इन दो कोटियों में समग्र भाववीर्य को समाविष्ट किया है। अकर्मवीर्य को कर्मक्षयजनित पण्डितवीर्य और सकर्मवीर्य को कर्मोदयनिष्पन्न बालवीर्य कहा गया हैं। अकर्मवीर्य का 'अकर्म' शब्द अप्रमाद एवं संयम का तथा सकर्मवीर्य का 'कर्म' शब्द प्रमाद
एवं असंयम का सूचक है। । प्रस्तुत अध्ययन में सकर्मवीर्य का परिचय देते हुए कहा गया है कि जो लोग प्राणघातक शस्त्रास्त्र
विद्या, शास्त्र या मंत्र सीखते हैं, मायावी हैं, कामभोगासक्त एवं असंयमी हैं, वे संसारपरिभ्रमण करते हैं, दुःखी होते हैं, इसी प्रकार 'अकर्मवीर्य' का विवेचन करते। हुए कहा गया है कि पण्डित अपने वीर्य का सदुपयोग करते हैं, संयम में लगाते हैं। अध्यात्म बल (धर्मध्यान आदि) से समस्त पापप्रवृत्तियों, मन और इन्द्रिय को, दुष्ट अध्यवसायों को तथा भाषा के दोषों को रोक (संवरकर) लेते हैं । संयमप्रधान पण्डितवीर्य ज्यों-ज्यों बढ़ता है, त्यों-त्यों संयम बढ़ता है, पूर्णसंयमी बनने पर उससे निर्वाणरूप शाश्वत सुख मिलता है। अध्ययन के अन्त में पण्डितवीर्य सम्पन्न
साधक की तपस्या, भाषा, ध्यान एवं चर्या आदि का निर्देश किया गया है।' → प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य साधक को 'सकर्मवीर्य' से हटाकर 'अकर्मवीर्य' की ओर मोड़ना है। . उद्देशक रहित इस अध्ययन में २६ (चूणि के अनुसार २७) गाथाएँ हैं। 0 यह अध्ययन सूत्रगाथा ४११ से प्रारम्भ होकर ४३६ पर समाप्त होता है।
२ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा०६१ से १७ तक
(ख) सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक १६५ से १६७ तक का सारांश ३ (क) सूयगडंगसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ०७४ से ७८ तक का सारांश
(ख) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा०१ प० १४६