Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३३२
सूत्रकृतांग 1- सप्तम अध्ययन - कुशील परिभाषित कर्म के कारण विघात (नाश) को प्राप्त होता है । वह अतिक्रूरकर्मा अज्ञानी जीव बार-बार जन्म लेकर जो कर्म करता है, उसी से मरण-शरण हो जाता है ।
३८४. इस लोक में अथवा परलोक में, एक जन्म में अथवा सैकड़ों जन्मों में वे कर्म कर्त्ता को अपना फल देते हैं, अथवा जिस प्रकार वे कर्म किये हुए हैं, उसी प्रकार या दूसरे प्रकार से भी अपना फल देते हैं। संसार में परिभ्रमण करते हुए वे कुशील जीव उत्कट से उत्कट ( बड़े से बड़ा ) दुःख भोगते हैं और आर्त्तध्यान करके फिर कर्म बाँधते हैं, और अपनी दुर्नीति (पाप) युक्त कर्मों का फल भोगते रहते हैं ।
विवेचन - कुशील कृत जीवहिंसा और उसके दुष्परिणाम - प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं में शास्त्रकार ने कुशील के सन्दर्भ में निम्नलिखित तथ्यों का उद्घाटन किया है - ( १ ) संसारी जीवों के मुख्य दो प्रकार हैं - स्थावर और त्रस । स्थावर के ५ भेद - पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । तृण, वृक्ष आदि वनस्पति के अन्तर्गत है । ये सब एकेन्द्रिय और तद्रूप शरीर वाले होते हैं । ये तसजीव हैं । अण्डज, जरायुज स्वेदज, और रसज । त्रसजीव द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होते हैं । इन सब को आत्मवत् जानो । (२) कुशील व्यक्ति विविध रूपों में स्थावर और तसजीवों का उत्पीड़न करके अपनी आत्मा को ही दण्डित करता है, (३) वह इन्हीं जीवों में बार-बार उत्पन्न होता है, और जन्म, जरा, मृत्यु आदि दुःखों का अनुभव करता हुआ विनष्ट होता है । (४) कर्म कर्त्ता को इस जन्म में या अगले जन्मों में, इस लोक या परलोक में, उसी रूप में या दूसरे रूप में अपना फल दिये बिना नहीं रहते । (५) कुशील जीव कर्मानुसार संसार में परिभ्रमण करते हुए उत्कट से उत्कट दुःख भोगते हैं, (५) कर्मफल भोगते समय वे आर्त्तध्यान करके फिर कर्म बाँध लेते हैं, फिर उन दुष्कर्मों का फल भोगते हैं ।
निष्कर्ष यह है कि कुशील जीवों को पीड़ित करके अपनी आत्मा को ही पीड़ित ( दण्डित )
करता है । '
कठिन शब्दों की व्याखवा - आयदंडे - आत्मदण्ड आत्मा दण्डित को जाती है । आयतदण्डरूप मानने पर अर्थ होता है - दीर्घकाल तक दण्डित होते हैं । विप्परियात्रिति = ( इन्हीं पृथ्वीकायादि जीवों में ) विविध - अनेक प्रकार से, चारों ओर से शीघ्र ही जाते हैं, बार-बार उत्पन्न होते हैं, (२) अथवा विपर्यास यानी विपरीतता या अदला-बदली को प्राप्त होते हैं, सुखार्थीजन सुख के लिए जीवसमारम्भ करते हैं, परन्तु उन्हें उस आरम्भ से दुःख ही प्राप्त होता है, अथवा कुतीर्थिकजन मोक्ष के लिए जीवों के द्वारा जो आरम्भादि क्रिया करते हैं, उन्हें उससे संसार ही मिलता है, मोक्ष नहीं । जाइवहं - इसके दो रूप होते हैं। . - जातिपथ और जातिवध । जातिपथ का अर्थ - एकेन्द्रियादि जातियों का पथ । जातिवध का अर्थ - जाति - उत्पत्ति, वध = मरण, अर्थात् जन्म और मरण । अणुपरियट्टमाणे - दो अर्थ - प्रथम अर्थ के अनुसार पर्यटन - परिभ्रमण करता हुआ, दूसरे के अनुसार — जन्ममरण का बार-बार अनुभव करता हुआ ।"
१ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १५४-१५५ का सारांश
२ (क) सूयगडंग चूर्णि ( मू० पा० ) पू० ६८
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १५४ - १५५