Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय उद्देशक : गाथा २११ से २१३ . पराक्रम करें।' आत्मत्व कहते हैं- आत्मभाव-आत्मा के स्वभाव को। आत्मा का पूर्णतया शुद्ध स्वभाव समस्त कर्मकलंक से रहित होने-मोक्ष प्राप्त होने पर होता है। निष्कर्ष यह है कि आत्मत्व की यानी मोक्ष की प्राप्ति के लिए सुविहित साधु को अप्रमत्त होकर पुरुषार्थ करना चाहिए। अथवा साधुजीवन का ध्येय आत्मा का मोक्ष या संयम है। चूर्णिकार ने आतत्थाए पाठ मानकर यही अर्थ किया है
सः संजमो वा अस्यार्थस्य-मातस्थाए । अर्थात आत्मा मोक्ष या संयम को कहते हैं. वही आत्मा का आत्मत्व स्वभाव है। जिसे प्राप्त करने लिए वह सर्वतोमुखी प्रयत्न करे। आत्मा पर कषायादि लंग कर उसे विकृत करते हैं, स्वस्वरूप में स्थिर नहीं रहने देते। इसीलिए शास्त्र में कहा गया है
कोहं माणं च मायं च लोहं पंचेदियाणि य।
दुज्जयं चेवमप्पाणं, सव्वमप्पे जिए-जियं ।।" "क्रोध, मान, माया और लोभ; ये चार कषाय तथा पाँचों इन्द्रियाँ, ये आत्मा के लिए दुर्जेय हैं। अतः आत्मा को जीत लेने (यानी आत्मा पर लगे कषाय विषयसंग आदि को हावी न होने देने) पर सभी को जीत लिया जाता है।
पाठान्तर - ‘ण ते पिठुमुवेहंति, किं परं मरणं सिया?' के बदले चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-'ण ते पिट्ठतो पेहंति, किं परं मरणं भवे ।"- अर्थात्-वे पीछे मुड़कर नहीं देखते। यही सोचते हैं कि मृत्यु से बढ़कर और क्या होगा ?" उपसर्ग : परवादिकृत आक्षेप के रुप में
२११. तमेगे परिभासंति भिक्खुयं साहुजीविणं ।
जे ते उ परिभासंति अंतए ते समाहिए ॥८॥ २१२. संबद्धसमकप्पा हु अन्नमन्न सु मुच्छिता।
पिडवायं गिलाणस्स जं सारेह दलाह य ॥४॥ २१३. एवं तुन्भे सरागत्था अन्नमन्नमणुव्वसा।
नट्ठसप्पहसब्भावा संसारस्स अपारगा ॥ १० ॥ २११. साध्वाचार-(उत्तम आचार) पूर्वक जीने वाले उस (सुविहित) भिक्षु के विषय में कई (अन्यदर्शनी) (आगे कहे जाने वाले) आक्षेपात्मक वचन कहते हैं, परन्तु जो इस प्रकार (-के आक्षेपात्मक वचन) कहते हैं, वे समाधि से बहुत दूर हैं।
५ (क) उत्तराध्ययन अ० ६, गा० ३६
(ख) सूत्रकृतांग शोलांकवृत्ति पत्रांक ८६
(ग) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० ३८ ६ सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पू० ३८