Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-षष्ठ अध्ययन-महावीर स्तव । 'वीर शब्द के निक्षेप दृष्टि से ६ अर्थ नियुक्तिकार ने बताए हैं-(१) नामवीर, (२) स्थापना
वीर, (३) द्रव्यवीर, (४) क्षेत्रवीर, (५) कालवीर और (६) भाववीर । नाम-स्थापना वीर सुगम है। 'द्रव्यवीर' वह है, जो द्रव्य के लिए युद्धादि में वीरता दिखाता है, अथवा जो द्रव्य वीर्यवान हो । तीर्थंकर अनन्त बल-वीर्य युक्त होते हैं, चक्रवर्ती भी सामान्य मनुष्यों या राजाओं आदि से बढ़कर बल-वीर्यवान होते हैं । इसलिए ये द्रव्यवीर कहे जा सकते हैं । अपने क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम दिखाने वाला क्षेत्रवीर' है । जो अपने युग या काल में अद्भुत पराक्रमी होता है अथवा काल (मृत्यु) पर विजय पा लेता है, वह कालवीर है। भाववीर वह है, जिसकी आत्मा रागद्वेष, क्रोधादि कषाय, पंचेन्द्रिय-विषय, काम, मोह, मान, तथा उपसर्ग, परीषह आदि पर परम विजय प्राप्त कर लेती है।
। यहाँ 'वीर' शब्द से मुख्यतया 'भाववीर' ही विवक्षित है। महती भाववीरता के गुणों के कारण
यहाँ ‘महावीर' शब्द व्यक्तिवाचक होते हुए भी गुणवाचक है । - आभूषण, चन्दन, पुष्पमाला आदि सचित्त-अचित्त द्रव्यों द्वारा अथवा शरीर के विविध अंगों के
नमन, संकोच तथा वाचा-स्फुरण आदि द्रव्यों से जो स्तुति की जाती है, वह द्रव्यस्तुति है, और विद्यमान गुणों का उत्कीर्तन, गुणानुवाद आदि हृदय से किया जाता है, वहां भावस्तुति है ।
प्रस्तुत में तीर्थंकर महावीर की भावस्तुति ही विवक्षित है । यही 'महावीरस्तव' का भावार्थ है। - प्रस्तुत अध्ययन में भगवान महावीर स्वामी के ज्ञानादि गुणों के सम्बन्ध में श्री जम्बूस्वामी द्वारा
उठाए हुए प्रश्न का गणधर श्री सुधर्मास्वामी द्वारा स्तुति सूचक शब्दों में प्रतिपादित गरिमामहिमा-मण्डित सांगोपांग समाधान है। उद्देशक रहित प्रस्तुत अध्ययन में २६ सूत्रगाथाअ द्वारा भगवान महावीर के अनुपम धर्म, ज्ञान, दर्शन, अहिंसा, अपरिग्रह, विहारचर्या, निश्चलता, क्षमा, दया, श्रुत, तप, चारित्र, कषाय-विजय, ममत्व एवं वासना पर विजय, पापमुक्तता, अद्भुत त्याग आदि उत्तमोत्तम गुणों का भावपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अष्टविध कर्मक्षय के लिए उनके द्वारा किये गये पुरुषार्थ,
३ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास आ० १ पृ० १४६ ४ (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० ८३, ८४,
(ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक १४२ (य) जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे ।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ। पंचेंदियाणि कोहं, माणं मायं, तेहव लोहं च ।
दुज्जयं चेव अप्पाणं, सध्वमप्पे जिए जियं ।। ५ (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० ८५ पूर्वार्द्ध
- उत्तरा० अ० ६, गा० ३४, ३६