Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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गाथा ३६१ से ३६५
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- जैसे सुमेरुपर्वत ऊर्ध्व, अधः और मध्य तीनों लोकों से स्पृष्ट है, वैसे ही भगवान् का प्रभाव भी त्रिलोक में व्याप्त था । जैसे सुमेरु तीन विभाग से सुशोभित है - भूमिमय, स्वर्णमय, वैडूयंमय, वैसे ही भगवान् भी सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से सुशोभित थे । सुमेरुशिखर पर पताकावत् पण्डकवन सुशोभित है, वैसे वीर प्रभु भो तोर्थंकर नामक शोर्षस्थ पद से सुशोभित थें । सूर्यगण आदि सदैव सुमेरु के चारों ओर परिक्रमा देते हैं, वैसे भगवान् के भी चारों ओर देव तथा चक्रवर्ती आदि सम्राट् भी प्रदक्षिणा देते थे, उनका उपदेश सुनने के लिए उत्सुक रहते थे । सुमेरु स्वर्णवर्ण का है, भगवान भी स्वर्ण-सम कान्ति वाले थे । सुमेरु ऊर्ध्वमुखी है, वैसे ही भगवान् के अहिंसादि सिद्धान्त भी सदैव ऊर्ध्वमुखी थे । सुमेरु के नन्दनवन में स्वर्ग से देव और इन्द्रादि आकर आनन्दानुभव करते हैं, भगवान के समवसरण में सुर-असुर, मानव, तिर्यञ्च आदि सभी प्राणी आकर आनन्द और शान्ति का अनुभव करते थे । सुमेरुपर्यंत अनेक नामों से सुप्रसिद्ध है, वैसे ही भगवान भी वीर, महावीर, वर्धमान, सन्मति, वैशालिक, ज्ञातपुत्र विशलानन्दन आदि नामों से सुप्रसिद्ध थे । सुमेरु की कन्दरा से उठने वाली देवों की कोमल ध्वनि दूर-दूर गूंजती रहती है, वैसे वीरप्रभु की अतीव ओजस्वी, सारगर्भित, गम्भीर दिव्यध्वनि भी दूर-दूर श्रोताओं को सुनाई देती थी, सुमेरुपर्वत अपनी ऊँची-ऊँची मेखलाओं एवं उपपर्वतों के कारण दुर्गम हैं, वैसे भगवान भी प्रमाण, नय, निक्षेप अनेकान्त ( स्याद्वाद ) की गहन भंगावलियों के कारण तथा गौतम आदि अनेक दिग्गज विद्वान् अन्तेवासियों के कारण वादियों के लिए दुर्गम एवं अजेय थे । जैसे सुमेरुगिरि अनेक तेजोमय तरु समूह से देदीप्यमान है, वैसे ही भगवान् भी अनन्तगुणों से देदीप्यमान थे । जैसे सुमेरु, पर्वतों का राजा है, वैसे भगवान् महावीर भी त्यागी, तपस्वी साधु श्रावकगण के राजा थे, यानी संघनायक थे । सुमेरुपर्वत से चारों ओर प्रकाश की उज्ज्वल किरणें निकलकर सर्वदिशाओं को आलोकित करती रहती हैं, वैसे ही भगवान के ज्ञानालोक की किरणें भी सर्वत्र फैलकर लोक - अलोक सबको आलोकित करती थी, कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं, जो उनके अनन्त ज्ञानालोक से उद्भासित न होता हो । जैसे सुमेरुपर्वत ठीक भूमण्डल के मध्य में है, वैसे भगवान भी धर्म - साधकों की भक्ति-भावनाओं के मध्यबिन्दु थे। पर्वतराज सुमेरु जैसे लोक में यशस्वी कहलाता हैं, वैसे ही जिनराज भगवान तीनों लोकों में महायशस्वी थे । जिस प्रकार मेरुगिरि अपने गुणों के कारण पर्वतों में श्रेष्ठ, हैं वैसे ही भगवान भी अपनी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील आदि सद्गुणों में सर्वश्रेष्ठ थे । इसी आशय से शास्त्रकार कहते हैं'एतोवमे समणे नायपुते जाति जसो दंसण णाण-सीले 15
विविध उपमाओं से भगवान की श्रेष्ठता
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३६६. गिरीवरे वा निसहाऽऽयताणं, रुयगे व सेट्ठे वलयायताणं ।
ततोवमे से जगभूतिपण्णे, मुणीण मज्झे तमुदाहु पण्णे ||१५|| ३६७. अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाई । सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं संखेद वेगंतवदातसुक्कं ॥१६॥
सूत्रकृतांग शीलांक वृत्तिपत्र १४७-४८ का सार