Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृताग--पंचम अध्ययन-रकविभक्ति नरक में मल-मूत्र आदि का भक्षण : कितना असह्य रसास्वाद ?-नरक में नारकीय जीवों को रहने के लिए मल-मूत्र, मवाद आदि गंदी वस्तुओं से भरे स्थान मिलते हैं । नरक की कालकोठरी जेल की कालकोठरी से अनन्त गुना अधिक भयंकर होती है वहाँ नारकों को खाने-पीने के लिए मल, मूत्र, मवाद, रक्त आदि घिनौनी कुरूप वस्तएँ मिलती हैं। इसी प्रकार की घिनौनी चीजों का भक्षण करते हए एवं बीभत्स स्थान में रहते हए नारकी जीव रिबरिबकर अपनी लम्बी आयु (कम से कर १० हजार वर्ष की, अधिक से अधिक ३३ सागरोपम तक की दीर्घकालिक) पूरी करते हैं। उन मल, मूत्र, रक्त एवं मवाद आदि में भयानक कीड़े उत्पन्न होते हैं, जो नारकों को रात-दिन काटते रहते हैं। यह है-नरक में रसादि जन्य तीब्र दुःख ! शास्त्रकार कहते हैं- "ते हम्ममाणा"दुरूवस्स "दुक्खभक्खी "तुति "किमोहिं ।”
___दुःसह स्पर्शजन्य तीन वेदना-नरक में स्पर्शजन्य दुःख तो पद-पद पर है। वह स्पर्श अत्यन्त दु:सह और दारुण दुःखद होता है । शास्त्रकार ने सू० गा० ३०६, ३०७, ३११, ३१६, ३२० एवं ३२४ में नारकों को पापकर्मोदयवश प्राप्त होने वाले दुःसह स्पर्शजन्य दुःख की झांकी प्रस्तुत की है।
(१) नरक की तप्त भूमि का स्पर्श कैसा और कितना दुःखदायी ?-नरक की भूमि को शास्त्रकार ने खैर के धधकते अंगारों की राशि की, तथा जाज्वल्यमान अग्निसहित पृथ्वी की उपमा दी है। इन दोनों प्रकार की-सी तपतपाती नरकभूमि होती है, जिस पर चलते और जलते हए नारकीय जीव जोर-जोर से करुण क्रन्दन करते हैं। यहाँ नरकभूमि की तुलना इस लोक की बादरअग्नि से की गई है। परन्तु वास्तव में यह तुलना केवल समझाने के लिए है, नरक का ताप तो इस लोक के ताप से कई गुना अधिक है। अतः महानगर के दाह से भी कई गुने अधिक ताप में नारक रोते-बिलखते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपनी आयुपर्यन्त रहते हैं । यही बात शास्त्रकार सू० गा० ३०६ में कहते हैं-"इंगालरासि"तत्थ चिरद्वितीया ।" ___ नरक में गुहाकोर अग्नि में सदा जलते हुए नारक--नरक में गुफानुमा नरकभूमि में आग ही आग चारों ओर रखी होती है । बेचारे नारक पापकर्मोदयवश उससे अनभिज्ञ होते हैं, वे बलात इस अग्निमयी भूमि में धकेल दिये जाते हैं, जहाँ वे उस पूर्णतापयुक्त करुणाजनक स्थान में संज्ञाहीन होकर जलते रहते हैं। वह स्थान नारकों को अपने पूर्वकृतपापकर्मवश अवश्य ही मिलता है, उष्णस्पर्शमय वह स्थान स्वभाव से ही अतिदुःखद होता है । एक पलक मारने जितना समय भी यहाँ सुख में नहीं बीतता । सदैव दुःख ही दुःख भोगते रहना पड़ता है।
अत्यन्त शीतस्पर्श से बचने का उपाय भी कितना दुःखद?-नारकी जीव नरक के भयंकर दुःसह शीत के दुःख से बचने के लिए अत्यन्त प्रदीप्त सूतप्त अग्नि के पास जाते हैं। परन्तु वह आग तो अत्यन्त दाहक होती है । बेचारे गये थे सुख की आशा से, किन्तु वहाँ पहले से भी अधिक दुःख मिलता है. वे नरक की उस प्रचण्ड (तीव्रताप युक्त) आग में जलने लगते हैं, जरा भी सुख नहीं पाते। फिर ऊपर से नरकपाल उन तपे हुए नारकों को और अधिक ताप तरह-तरह से देते रहते हैं। यही तथ्य शास्त्रकार ने ३१६ सू० गा० में व्यक्त किया है-"तहि च ते " गाढं सुतत्त अगणि वयंति "तह वी तति ।"
सदैव पूर्णतया उष्ण नरकस्थान : दुःखों से परिपूर्ण-नारकों के आवासस्थान का कोई भी कोना ऐसा नहीं होता, जो गर्म न हो । समूचा स्थान सदैव उष्ण रहता है। उसमें नरक के जीव सदा सिकते रहते हैं । उस स्थान का तापमान बहुत अधिक होता हैं । वहाँ का सारा वायुमण्डल तापयुक्त एवं दुःखमय