Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा
- 'स्त्रीपरिज्ञा का विशिष्ट अर्थ हआ-स्त्री के स्वरूप, स्वभाव आदि का परिज्ञान और उसके प्रति
आसक्ति, मोह आदि के परित्याग का जिस अध्ययन में वर्णन है, वह स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन है। - स्त्रीसंगजनित उपसर्ग किस-किस प्रकार से साधुओं पर आता है ? साधुओं को उक्त उपसर्ग से
कैसे बचना चाहिए? इत्यादि परिज्ञान कराना इस अध्ययन का उद्देश्य है।' 0 स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन के दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में स्त्रीजन्य उपसर्ग के सन्दर्भ में यह बताया
गया है कि स्त्रियों के साथ संसर्ग रखने, उनके साथ चारित्र भ्रष्ट करने वाली बातें करने तथा उनके कामोत्तेजक अंगोपांगों को विकार भाव से देखने आदि से मन्दपराक्रमी साधु शीलभ्रष्ट हो जाता है। तनिक-सी असावधानी रखने पर श्रमणत्व का विनाश हो सकता है; वह साधु दीक्षा तक को छोड़ सकता है । प्रथम उद्देशक में ३१ गाथाएँ हैं । द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि शीलभ्रष्ट साधु को स्वपक्ष और परपक्ष की ओर से कैसेकैसे अपमान, तिरस्कार आदि दुःखों के प्रसंग आते हैं ? शीलभंग से हुए अशुभ कर्मबन्ध के कारण अगले जन्मों में उसे दीर्घकाल तक संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। विचित्र छलनापूर्ण मनोवृत्ति वाली स्त्रियों द्वारा अतीव बुद्धिमान् प्रचण्ड शूरवीर एवं महातपस्वी कैसे-कैसे चक्कर में फँसा लिये जाते हैं ? यह दृष्टान्तपूर्वक समझाया गया है। द्वितीय उद्दे शक में २२
गाथाएँ हैं। । इस अध्ययन में स्त्रियों को अविश्वसनीय, कपट की खान आदि दुगुणों से युक्त बताया गया है,
वह मात्र पुरुष को जागृत और काम विरक्त करने की दृष्टि से है, वहाँ स्त्रियों की निन्दा करने की दृष्टि कतई नहीं है, विशेषतः श्रमण को सावधान करने की दृष्टि से ऐसा बताया गया है। वास्तव में पुरुष की भ्रष्टता का मुख्य कारण तो उसकी स्वयं की काम-वासना है, उस वासना के उत्तेजित होने में स्त्री निमित्त कारण बन जाती है। इसलिए 'स्त्रीपरिज्ञा' का तात्पर्य स्त्री
संसर्ग निमित्तक उपसर्ग की परिज्ञा समझना चाहिए। 0 इसी कारण नियुक्तिकार और वृत्तिकार इस तथ्य को स्वीकार करते हैं-स्त्रियों के संसर्ग से जितने दोष पुरुष में उत्पन्न होते हैं, प्रायः उतने ही दोष पुरुषों के संसर्ग से स्त्री में उत्पन्न हो सकते हैं । अतः वैराग्यमार्ग में स्थित श्रमणों को स्त्री-संसर्ग से सावधान रहने की तरह दीक्षित साध्वियों को भी पुरुष-संसगं से सावधान (अप्रमत्त) रहना चाहिए ।
१ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ५६
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १०२ २ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ५८
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १०२ ३ जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग १, पृ० १४५