Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३७६
सूत्रकृताग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा उसके कारणों से दूर रहे । वीतरागता के पथिक द्रव्य और भाव से एकाकी साधक में रागभाव आ जाता है या अन्य पदार्थों में आसक्ति होती है, तब साधु जीवन की विडम्बना होती है, विशेषतः स्त्री सम्बन्धी राम, आसक्ति या मोह का बन्धन तो अत्यधिक विडम्बनाकारक है। इसीलिए शास्त्रकार सूत्रगाथा २७८ में निर्देश करते हैं-"ओए सदा ण रज्जेज्जा ।"
इस चेतावनी के बावजूद साधु के चित्त में पूर्व संस्कारवश या मोहकर्म के उदयवश काम-भोग पासमी प्रती जाए. तो ज्ञान रूपी अंकश से मारकर तुरन्त उन काम-भोगों से विरक्त-विरत हो जाना चाहिए । जैसे मुनि रथनेमि को महासती राजीमती को देखकर कामवासना प्रादुभूत हो गई थी, लेकिन ज्यों ही महासती राजीमती का ज्ञान-परिपूर्ण वचन रूप अंकुश लगा कि वे यथापूर्व स्थिति में भागए थे, एकदम कामराग से विरत होगए थे। वैसे ही साध का मन कदाचित् स्त्री सम्बन्धी भोगवसिनी से ग्रस्त हो जाए तो फौरन वह ज्ञान बल द्वारा बलपूर्वक उसे रोके, उसमें बिल्कुल दिलचस्पी में लै, बापूर्व स्थिति में आ जाए तो वह शील भ्रष्टता एवं उसके कारण होने वाली विडम्बनाओं से बैंच सकती है। स्त्री सम्बन्धी भोगवासना चित्त में आते ही श्रमण इस प्रकार से चिन्तन करे कि “वह स्त्री मेरी
हैं। फिर मेरा उसके प्रति रागभाव क्यों ? यह तो मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव तो वीतरागभाव है। इसप्रकार वह आत्मत्राता श्रमण रामभाव को अपने ह्रदय से खदेड़ दे।"3
और फिर कोम-भोग तो किम्पाकफल के समान भयंकर हानिकारक है। किम्पाकफलं तो एक ही पार, और वह भी शरीर को ही नष्ट करता है, लेकिन स्त्रीजन्य कामभोग बार-बार जन्म-जन्मान्तर मैं शरीर और आत्मा दोनों को नष्ट करते हैं। इसीलिए शास्त्राकार कहते हैं-'मोनकामी पुंगो विरग्वेजा।
शास्त्रकार की इतनी चेतावनी के बावजूद जो साधु काम-भोमों की कामना को न रोककर उल्टे ऑसक्ति पूर्वक काम-भौगों के प्रवाह में बह जाता है, लोग उसकी हंसी उड़ाते हैं, कहते हैं- 'वाह रे साधु ! कल तो हमें काम-भोगों को छोड़ने के लिए कह रहा था, आज स्वयं ही काम-भोंगों में बुरी तरह लिपट गया। यह कैसा साधु है ! इस प्रकार वह साधु जनता के लिए अविश्वसनीय, अश्रद्धे य, अनादरणीव और निन्दनीय बन जाता है। उसके साथ-साथ उससे सम्बन्धित गुरु, आचार्य तथा अन्य सम्बन्धित श्रमण भी लोक विडम्बना, लोकनिन्दा एवं घोर आशातना के पात्र बन जाते हैं। इसी आशय को व्यक्त करने के लिए शास्त्रकार एकवचन युक्त श्रमण शब्द का प्रयोग न करके बहुवचनयुक्त
१ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ११५ के अनुसार २ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ११५ के अनुसार (ख) "तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं ।
अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥" -दशवै० अ०२ गा० १०, तथा उत्तरा अ० ६२ गा० ४६ (म) "न सा महं, नो वि अहंपि तीसे इन्वेव ताओ विणएज्ज राग।"
-दशव० अ०२ गा०४