Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ उद्देशक : गाथा २४२ से २४६
२४५
सुगुरु और सद्धर्म तथा सच्छास्त्र के प्रति दृढ़ श्रद्धा रखेगा, हेय ज्ञ ेय उपादेय तत्त्वों को जान सकेगा, तथा सर्वत्र आत्महित की दृष्टि ही मुख्य रखेगा। वह फिर चारित्र भ्रष्ट करने वाले अनुकूल उपसर्गों के चक्कर में नहीं आएगा । इसीलिए कहा गया है - 'दिट्टिमं ।'
तेरहवां कदम-उपसर्गों पर सफलतापूर्वक विजय पाने हेतु साधक के रागद्वेष एवं कषाय आदि परिशान्त होने आवश्यक है । अगर उसका राग-द्वेष या क्रोधादि कषाय बात-बात में भड़क उठेगा, या समय-असमय वह राग-द्वेष- कषायादि से उत्तेजित हो जाएगा तो वह अनेक आत्म-संवेदनकृत उपसर्गों से घिर जाएगा, फिर उन उपसर्गों से छुटकारा पाना कठिन हो जाएगा। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा'परिनिकुडे' ।
चौदहवाँ कदम - इतना सब करने पर भी साधक के जीवन में अनुकूल या प्रतिकूल कई उपसर्ग अकस्मात् आ सकते हैं, उस समय साधक को फौरन ही विवेकपूर्वक उन उपसर्गों पर काबू पाना आवश्यक है । अगर वह उस समय गाफिल होकर रहेगा तो उपसर्ग उस पर हावी हो जाएगा, इसलिए उपसर्ग के आते ही मन से उसे तुरन्त निर्णय करना होगा कि मुझे इस उपसर्ग को अपने पर विजयी नहीं होने देना है, यानी इस उपसर्ग से पराजित नहीं होना है, अपितु इस पर नियन्त्रण (विजय) पाना है । इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं- 'उवसग्गे नियामित्ता' ।
पन्द्रहवाँ कदम - सबसे अन्तिम कदम उपसर्ग - विजयी बनने के लिए यह है कि उस साधक को उपसर्गों के बार-बार आक्रमण होने पर मन में अश्रद्धा, अविश्वास और अधीरता लाकर संयम (संयमी जीवन) को छोड़ बैठना नहीं चाहिए अपितु दृढ़ विश्वास और धैर्य के साथ उपसर्गों को सहन करते हुए, मोक्ष प्राप्ति (कर्मों के सर्वथा क्षय) होने तक संयम पर डटे रहना चाहिए। उसकी संयमनिष्ठा इतनी पक्की होनी चाहिए । इसी तथ्य की ओर शास्त्रकार का संकेत हैं- " आमोक्खाए परिव्वज्जासि ।”
उपसर्ग परिज्ञा अध्ययन की परिसमाप्ति में अन्तिम दो गाथाओं की (जो कि इसी अध्ययन के तृतीय उद्देशक के अन्त में दी गई थीं) पुनरावृत्ति करके भी शास्त्रकार ने पाँच सूत्रगाथाओं में उपसर्गविजयी बनने के लिए पंचदशसूत्री कदमों का मार्ग निर्देश किया । ३२
पाठान्तर और व्याख्या - विसण्णा सं कच्चंति सयकम्मुणावृत्तिकार के अनुसार- 'विषण्णाः सन्तः कृत्यन्ते - पीड्यन्ते स्वकृतेन-आत्मनाऽनुष्ठितेन पापेन कर्मणा असवेदनीयोदयरूपेण - अर्थात् जिस संसार में विषण्णफँसे हु प्राणी स्वकृत असातावेदनीयरूप पापकर्म के उदय से पीड़ित होते हैं । चूर्णिकार 'विण्णास चकच्चंती सह कम्मुणा' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते हैं - ' यस्मिन् यत्र एते पाषण्डाः '''' विषयजिता विषण्णा आसते गृहिणश्च, इह परत्र च कच्चति सहकम्मुणा' - जिस संसार में ये पाषण्ड व्रतधारी ( साधक ) या गृहस्थ विषयों से पराजित होकर विषण्ण - दुःखी रहते हैं, और अपने कर्मों से यहाँ और वहाँ पीड़ित होते हैं । विवज्जेज्जादिण्णादाणाइ वोसिरे = वृत्तिकार 'बज्जिज्जा अदिन्नादाणं च वोसिरे' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं— 'अदत्तादानं च व्युत्सृजेत्' दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं न गृह्णीयात् ।' अर्थात् - अदत्तादान का
३२ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १००, १०१ के आधार पर
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पु० ४९६ से ५०५ के आधार पर